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बऋह्मपरवं ]

* देवर्षिं नारदह्वरा सुर्यके विराद्रूप तथा उनके ग्रधावका वर्णान « ९९

करती हैं | उनका नाम चन्द्र है और वर्ण पीत है । दोष तीन सौ

शक्र नापवाली किरणे धूपकी सृष्टि करती हैं, ये सभी किरणे

ओषधियो, स्वधा तथा अमृतके रूपमे मनुष्यों, पितते तथा

देवताओंको सदा संतृप्त करती रहती हैं। ये द्वादक्षात्मा

काल-स्वरूप सूर्यदेव तीनों स्के अपने तैजसे तपते रहते

हैं। ये ही ऋह्मा-विष्णु तथा शिव दै, ऋक्‌, यजुः एवं

साम--ये तीनों वेद भी ये हो हैं। प्रातःकालमें ऋष्वेद्‌,

मध्याह्कालमें यजुर्वेद तथा संध्याकाले सामवेद इनकी स्तुति

करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा ज्लिकके द्वारा इनका पूजन नित्य

दयता रहता है । जिस प्रकार वायु सर्वगत है, उसी प्रकार

सूर्यकी किरण भी सर्वव्याप्त है। तीन सौ किरणोंके द्वारा भूल्मेंक

प्रकाशित होता रहता है। इसके पश्चात्‌ जो दोष किरणे हैं, वे

लीन-तीन सौकी संख्यामें रोष अन्य दोनों ल्म्रेकों( भुवर्लॉक

और स्वर्लोक) को प्रकाशित करती हैं। एक सौ किरणोंसे

पाताल प्रकाशित होता है। ये नक्षत्र, ग्रह तथा चनदरमादि

प्रहकि अधिष्ठान है । चन्द्रमा, मह, नक्षत्र तथा ताग्रगणॉमें

सूर्यनारयणका ही प्रकादा है। इनकी एक सहस किरणोंमें

रहसंश्चक सात किरणे मुख्य हैं, जिन्हें सुषुम्णा, हर्किदा,

विश्वकर्मा, सूर्य, रदिम, विष्णु और सर्यबनमु कहा जाता है ।

सप्ूर्ण जगतके मूल भगवान्‌ आदित्य ही है । इनदर आदि

देवता इन्हींसे उत्पन्न हुए है । देवताओं तथा जगक््का सम्पूर्ण

तेज इन्हींका है। अग्रिमे दौ गयी आहुत सूरयनारायणको हौ

प्राप्त होती है । इसलिये आदित्यसे ही वृष्टि उत्पन्न होती है ।

वृष्टिसे अन्न उत्पन्न होता है तथा अन्नसे प्रजाका फलन छोता

है। ध्यान करनेवाले लोगोंके लिये ध्यान-रूप और मोक्ष प्राप्त

करनेकी इच्छसे आराधना करनेवाछे स्पेगोेकि किये ये

मोक्षस्वरूप हैं। क्षण, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन,

संवत्सर तथा युगकी कल्पन सूर्यनारायणके बिना सम्भव नहीं

है। काल-नियमके बिना अग्रिह्लोत्रादि कर्म नहीं हो सकते।

ऋतु-विभागके बिना पुष्प-फल तथा मूलकी उत्पत्ति सम्भव

नहीं है। उनके न रहनेसे तो जगतके सम्पूर्ण व्यवहार ही नष्ट

हो जते हैं। सूर्यगारायणके सामान्य द्वादश्च नाप इस प्रकार

हैं---आदित्य, सविता, सूर्य, मिहिर, अर्कः, प्रतापन, मार्तण्ड,

भास्कर, भानु, चित्रभानु, दिव्छकर और रवि । विष्णु, धाता,

भग, पषा, मित्र, इन्द्र, वरुण, अर्यमा, विवस्वान्‌, अंशुमान्‌,

त्वष्टा तथा पर्जन्य--ये द्ादश्च आदित्य है । चैत्रादि बारह

महीनॉपें ये द्रादशा आदित्य उदित रहते है । चैत्रे विष्णु,

वैशाखमे अर्यमा, ग्यष्टमे विवस्वान्‌, आाद्मे अदान्‌,

श्रावणमें पर्जन्य, भाद्रपदे वरुण, आश्चिनये इन्द्र, कार्तिकर्में

धाता, मार्गशीर्षमें पित्र, पौषमे पृथा, माघे भग और फाल्गुनमें

त्वष्टा नाके आदित्य तपते है ।

उत्तरायणमें सूर्य-किरणें वृद्धिको प्राप्त करती हैं और

दक्षिणायनमें वह किरण-वृद्धि घटने लगती है। इस प्रकार

सूर्य-किरणें व्मेकोपकारमें प्रवृत्त रहती हैं। जैसे स्फटिके

विभिन्न रंगोंके प्रविष्ट होनेसे वह अनेक वर्णका दिखायी देता

है, जैसे एक ही मेष आकाशामें अनेक रूपोंका हो जाता है

तथा गुण-विज्ेषसे जैसे आकाइसे गिरा हुआ जल भूमिके

रस-वैज्िष्यसे अनेक स्वाद और गुणवाला हो जाता है, जिस

प्रकार एक हौ अग्नि ईघन-भेदके कारण अनेक रूपोंमें विभक्त

हो जातौ है, जैसे वायु पदाथेकरि संयोगसे सुगन्धित और

दर्गन्धयुक्त हयो जाती है, जैसे गृह्माप्रिके भी अनेक नाम हो जाते

हैं, उसी प्रकार एक सूर्यनारायण ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव

आदि अनेक रूप धारण करते हैं, इसलिये इनकी ही भक्ति

करनी चाहिये। इस प्रकार जो सूर्यनारायणको जानता है, वह

रोग तथा पापोंसे शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।

फापी पुरुषकी सूर्यनाययणके प्रति भक्ति नहीं होती।

इसलिये साम्न ! तुम सूर्यनारायणकी आराधना करो, जिससे

तुम इस भयंकर व्याधिसे मुक्त होकर सभी कामनाओंको प्राप्त

कर ह्मेगे।

(अध्याय ७५-- ५८)

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