ब्राह्मपर्व ]
+ झंख एवं द्विज, वसिष्ठ एवं साम्ब तथा याज्ञवल्क्य और ब्रह्माका संवाद «
९१
धर्म, अर्थ तथा कामकी प्राप्तिके लिये जो चेष्टाएँ की जाती हैं,
उनमें वही चेष्टा सफलः है जो भगवान् सूर्यका आश्रय ग्रहण
कर् अनुष्ठित हो। अन्यथा वे सभी क्रियाएँ व्यर्थ हैं। इस
अपार घोर संसार-सागरमें निम्न प्राणियोद्रारा एक बार भी
किया गया सूर्यनमस्कार मुक्तिको प्राप्त करा देता है'।
भक्तिभावसे परिपूर्ण याइज्वल्क्थके इन वचनोंको सुनकर
ब्रह्माजी प्रसन्न हो उठे और कहने लगे कि याज्ञवल्क्य ! आपने
सूर्यनारायणकी आगाधनाका जो उपाय पूछा है, उसका मैं वर्णन
कर रहा हूँ, एकाग्रचित्त होकर आप सुने ।
ब्रह्माजी बोले-- आदि और अन्तसे रहित, सर्वव्याप्त,
परक्रह्म अपनी लत््रसे प्रकृति -पुरुष-रूप धारण करके
संसारको उत्पन्न करनेवाले, अक्षर, सृष्टि-रचनाके समय ब्रह्मा,
पालनके समय चिष्णु और संहारकालमें सद्र रूप धारण
करनेवाले सर्वदेवमय, पूज्य भगवान् सूर्यनारायण ही हैं। अब
मैं भेदाभेदस्वरूप उन भगवान् सूर्यको प्रणाम करके उनकी
आराधनाका वर्णन करूँगा, यह अत्यन्त गुप्त है, जिसे प्रसन्र
होकर भगवान् भास्करने मुझसे कहा था।
ब्रह्माजी पुनः बोले--याज्ञवल्क्य ! एक बार मैने
भगवान् सूर्यनारायणकी स्तुति की । उस स्तुतिसे प्रसन्न होकर
वे प्रत्वक्ष प्रकट हुए, तब मैंने उनसे पूछा कि महाराज !
बेद-बेदाड्रोंमें और पुराणोंमें आपका हौ प्रतिपादन हुआ है।
आप वश्वत्, अज तथा परग्रह्मस्वरूप हैं। यह जगत् आपे
ही स्थित है। गृहस्थाश्रम जिनका मूल है, ऐसे ये चारों
आश्रमोंचाले गात-दिन आपकी अनेक मूर्तियोंका पूजन करते
हैं। आप ही सबके माता-पिता और पूज्य हैं। आप किस
देवताका ध्यान एवं पूजन करते हैं ? मैं इसे नहों समझ पा रहा
हूँ, इसे मैं सुनना चाहता हूँ, मेर मनमें बड़ा कौतूदक है।
भगवान् सूर्यने कहा--ब्रह्मन् ! यह अत्यन्त गुर बात
है, किंतु आप मेरे परम भक्त हैं, इसलिये मैं इसका यथावत्
वर्णन कर रहा हूँ--वे परमात्मा सभी प्राणियोंमें व्याप्त, अचल,
्ज वलस
ह- दुर्मसंसास्काततारमपारमपिधावताम्।
नित्य, सूक्ष्म तथा इच्द्रियातीत हैं, उन्हें क्षेत्रज्ञ, पुरुष,
हिरण्यगर्भ, महान्, प्रधान तथा बुद्धि आदि अनेक नासे
अभिहित किया जाता है। जो तीनों ल्त्रेकोंके एकमात्र आधार
है, वे निर्गुण होकर भी अपनी इच्छसे सगुण हो जाते हैं,
सबके साक्षी हैं, खतः कोई कर्म नहीं करते और न तो
कर्मफलकी प्राप्निसे संशि रहते हैं। वे परमात्मा सब ओर
सिर, नेत्र, हाथ, पैर, नासिका, कान तथा मुखवाले हैं, ये
समस्त जगत्को आच्छादित करके अयस्थित हैं तथा सभी
प्राणियोंमें स्वच्छन्द होकर आनन्दपर्वक विचरण करते हैं।
शुभाशुभ कर्मरूप बौजवाला शरीर क्षेत्र कहल्लाता है।
इसे जाननेके कारण परमात्मा क्षेत्रज्ञ कहत्यते हैं। वे
अव्यक्तपुरमें शयन करनेसे पुरुष, बहुत रूप धारण करनेसे
विश्वरूप और घारण-पोषण करनेके कारण महापुरुष कहे व्यते
हैं। ये ही अनेक रूप धारण करते हैं। जिस प्रकार एक ही
वायु झरीर्में प्राण-अपान आदि अनेक रूप धारण किये हुए
है और जैसे एक ही अग्रि अनेक स्थान-भेदोंके कारण अनेक
नामोंसे अभिहित की जाती है, उसी प्रकार परमात्मा भी अनेक
भेदोंके कारण बहुत रूप धारण करते हैं। जिस प्रकार एक
दौपसे हजारों दौप प्रज्वलित हो जाते हैं, उसी प्रकार एक
परमात्मासे सम्पूर्ण जगत् उत्पत्र होता है। जब वह अपनी
इच्छासे संसारका संहार करता है, तब फिर एकाकी हो रह
जाता है। परमात्माकों छोड़कर जगत्में कोई स्थावर या ज॑गम
पदार्थ नित्य नहीं है, क्योंकि वे अक्षय, अप्रमेय और सर्वज्ञ
कहे जाते हैं। उनसे बढ़कर कोई अन्य नहीं है, वे ही पिता हैं,
वे हो प्रजापति हैं, सभी देवता और असुर आदि उन परमात्मा
भास्करदेवकौ आराधना करते हैं और वे उने सद्गति प्रदान
करते हैं। ये सर्वगत होते हुए भी निर्णुण हैं। उसी आत्मस्वरूप
परमेश्वर्का मैं ध्यान करता हूँ तथा सूर्यरूप अपने आत्माका हो
पूजन करता हूँ। हे याज्ञवल्क्य मुने ! भगवान् सूर्यने स्वयं ही
ये बातें मुझसे कही थीं। (अध्याय ६६-६७)
एक: .सुर्यनमस्कारो सुक्तिसार्गत्यदेशकः ॥
{जद्यपर्वं ६६। ५२)