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+ पुरार्ण परमं पुण्यं धविष्यं सर्वसौख्यदप् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
भर्यकर कुछ-रोगसे विदीर्ण हो गया था, यह सर्वथा रोगमुक्त
कैसे हुआ और तुम्हारे शरीरकी दिव्य कान्ति एवं ज्ञोभा कैसे
बढ़ गयी ? यह सब मुझे बताओ ।
सास्बने कहा--महाराज ! मैंने भगवान् सूर्यनारायणकी
आगाधना उनके सहस्रनाम की है। उसी आराधनाके
प्रधावये उन्होंने प्रसन्न होकर मुझे साक्षात् दर्दान दिया है और
उनसे मुझे बरकी भी प्राप्ति हुई है
बसि्ठने पुनः पूछा--तुमने किस विधिसे सूर्यकी
आराधना की है ? तुह किस त्रत, तप अधवा दानसे उनका
साक्षात् दर्शन हुआ ? यह सब विस्तारसे बतलाओ ।
साम्बने कहा--महाराज ! जिस विधिसे मैंने भगवान्
सूर्यको प्रसन्न किया है, वह समस्त युत्तात्त आप ध्यान-
पूर्वक सुते ।
आजसे बहुत पहले मैंने अज्ञानव दुर्वासा मुनिका
उपहास किया धा। इसलिये क्रोधे आकर उन्होंने मुझे
कुछरोगसे ग्रस्त होनेका एप दें दिया, जिससे मैं कुछरोगी हो
गया । तब अत्यन्त दुःखी एवे लज्जित होते हुए मैंने अपने पिता
भगवान् श्रीकृष्णके पास जाकर निवेदन किया--'तात ! मैं
दुर्वासा मुनिके शापसे कुछरोगसे ग्रस्त होकर अत्यधिक पीडित
हो रहा हूँ, मेरा शरीर गलता जा रहा है। कण्ठका स्वर भी
बैठता जा रहा है। पीड़ासे प्राण निकल रहे हैं। वैद्यों आदिके
द्वारा उपचार करानेपर भी मुझे दान्ति नहीं मिलती। अब
आपकी आज्ञा प्राप्त कर मैं प्राण त्यागना चाहता हँ । अतः आप
मुझे यह आज्ञा देनेकी कृपा करें, जिससे मैं इस कष्टसे मुक्त
हो सकूँ।' मेरा यह दीन वचन सुनकर उन्हें बड़ा दु:ख हुआ
और उन्हेनि क्षणधर विचार कर मुझसे कहां--पुत्र ! धैय
धारण करो, चिन्ता पत करो, क्योंकि जैसे सुले तिनकेकों आग
जल्मकर भस्म कर देती है, वैसे हौ चिन्ता करनेसे रोग और
अधिक कष्ट देता है। भक्तिपूर्वक तुम देवाराधन करो । उससे
सभी रोग नष्ट हो जायैंगे।' पिताके ऐसे वचन सुनकर मैंने
पूछा--“तात ! ऐसा कौन देवता है, जिसकी आराधना कलसे
इस भयंकर गेगसे मैं मुक्ति पा सकूँ ?'
भगवान् श्रीकृष्ण बोल्ले--पुत्र ! एक समयकी बात
है, योगिश्रेष्ट याज्ञवल्क्य मुनिने ब्रह्मण्पेकमें जाकर पद्मयोनि
ब्रह्माजीको प्रणाम किया और उनसे पूछा कि महाराज ! मोक्ष
प्राप्त करनेके इच्छुक प्राणीकों किस देवताकी आराधना करनी
चाहिये ? अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति किस देवताकी उपासना करनेसे
होती है ? यह चराचर विध किससे उत्पन्न हुआ है और किसमें
ततन होता है इन सबका आप वर्णन करें।
व्रह्माजी बोखे-- प्पे ! आपने बहुत अच्छा प्रश्न पूछा
है। यह सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं आपके प्रश्नोंका उत्तर
दे रहा हूँ, इसे ध्यानपूर्वक सुनें--ज़ो देवश्रेष्ठ अपने उदयके
साथ ही समस्त जगत्का अन्धकार नष्ट कर तीनों व्थ्रेकोंको
प्रतिभासित कर देते है, यै अजर-अमर, अव्यय, राश्वत,
अक्षय, शुभ-अशुभके जाननेवाले, कर्मसाक्षो, सर्वदेवता और
जगत्के स्वामी हैं। उनका मण्डल कभी क्षय नहीं होता। वे
पितरोकि पिता, देवताओंके भी देवता, जगत्के आधार, सृष्टि,
स्थिति तथा संहारकर्ता हैं। योगी पुरुष वायुरूप होकर जिनमें
लीन हो जाते हैं, जिनकी सहस्र रदिमयोमिं मुनि, सिद्धगण और
देवता निवास करते हैं, जनक, व्यास, शुकदेव, बालखिल्य,
आदि ऋषिगण, पश्चचाख आदि योगिगण जिनके प्रभा-
मण्डले प्रविष्ट हुए हैं, ऐसे वे प्रत्यक्ष देवता सूर्यनारायण ही
हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदिका नाम तो मात्र सुननेमें ही
आता है, पर सभीकों वे दृष्टिगोचर नहीं होते, किंतु
तिमिरनाशक सूर्यनारायण सभीको प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं।
इसलिये ये सभी देवताओं श्रेष्ठतम हैं। अतः याज्ञवल्क्य !
आपको भी सूर्यनारायणके अतिरिक्त अन्य किसी देवताकी
उपासना नहीं करनी चाहिये। इन प्रत्यक्ष देवताकी आराधना
करनेसे सभी फल प्राप्त हो सकते हैं।
याज्ञवल्क्य मुनिने कहा--महाराज ! आपने मुझे
बहुत ही उत्तम उपदेश दिया है, जो बिलकुल सत्य है, मैंने
पहले भी बहुत बार सूर्यनारायणके माहात्प्यकों सुना है।
जिनके दक्षिण अङ्गसे विष्णु, वाम अङ्गसे स्वयै आप और
लत्तसे रुद्र उत्पन्न हुए है, उनकी तुलना और कौन देवता कर
सकते हैं 2 उनके गुरणोका वर्णन धतम किन चा्दोमिं किया जा
सकता है ? अव यै उनकी उस आराधना-विधिको सुनना
चाहता हूँ, जिसके द्वारा सैं संसार-सागरकों पार कर जाऊँ । ये
कौन-से व्रत-उपवास-दान, होम-जप आदि हैं, जिनके करनेसे
सूर्यनारायण प्रसन्न होकर समस्त कश्ेंकों दूर कर देते हैं ? यह
सब आप वतलनेकी कृपा करें; क्योंकि प्राणियोंद्रारा