* 'भविष्यपुराण'--एक परिचय « ९
तुम्हारी इच्छ पूर्ण होगी।' इस वरदानके प्रभावसे आदम
नामके पुरुष और हव्यवती (हौवा) नामकी पत्नीसे
स्लेच्छवंशॉकी वृद्धि हुईं। कलियुगके तीन हजार वर्ष व्यतीत
होनेपर विक्रमादित्यका आविर्भाव होता है। इसी समय
रुद्रकिंकर वैतालका आगम होता है, जो विक्रमादित्वको कुछ
कथाएँ सुनाता है और इन कथाओंकि व्याजसे राजनीतिक और
व्यावह्मस्कि शिक्षा भी प्रदान करता है। वैतालद्रारा कही
गयी इन कथाओंका संग्रह 'वैतालपशञ्षचिंशति' अथवा
'बेतालूपचीसी के नामसे ल्म्रेकमें प्रसिद्ध है।
इसके कद श्रीसत्यनारायणव्रतकी कथाका वर्णन है।
भारतवर्धमें सत्यनाणयणव्रत-कथा अत्यन्त लोकप्रिय है और
इसका प्रसार-प्रचार भी सर्वाधिक है। भारतीय सनातन
फरमफरामें किसी भी माङ्गलिक कार्यकर प्रारम्भ भगवान्
गणपतिके पूजनसे एवं उस कार्यकी पूर्णता भगवान्
सत्यनारायणके कथाश्रवणसे प्रायः समझी जाती है।
भविष्यपुराणे प्रतिसर्गपर्वप भगवान् सत्यनाणयणत्रत-
कथाका उल्लेख छः अध्यायोंमें प्राप्त है। यह कथा
स्कन्दपुराणकी प्रचलित कथासे मिल्म्ती-जुझती होनेपर भी
विशेष रोचक एवं श्रेष्ठ प्रतीत होती है। वास्तवमें इस मायामय
संसास्की वास्तविक सत्ता तो है ही नहीं--“नासतो विद्यते
भावो नाभावो किद्यते सतः।' परमेश्वर ही त्रिकालाबाधित
सत्य हैं और एकमात्र वही ध्येय, डेय और उपास्य हैं।
झान-वैराग्य और अनन्य भक्तिके द्वारा वही साक्षात्कार करने
योग्य हैं। वस्तुतः सत्यनाग्यणत्रतका तात्पर्य उन झुद्ध
सचिदानन्द परमात्माकी आगघनासे ही है । निष्काम उपासनासे
सत्यस्वरूप नारायणकी प्राप्ति हो जाती है। अतः
श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजन, कथाश्रवण एवं प्रसाद आदिके द्वार
उन सत्यस्वरूप परक्रह्म परमात्मा भगवान् सत्यनारायणकी
उपासनासे लाभ उठाना चाहिये।
इस खण्डके अन्तिम अध्यायोंमें पितृद्दामा और उनके
यैक्षमें उत्पन्न होनेवाले व्याडि, मीमौसक, पाणिनि और वररुचि
आदिकी रोचक कथाएँ, प्राप्त होती हैं। इस प्रकरणमें
जह्चारिधर्मकी विभिन्न व्याख्याएँ करते हुए यह कहा गया है
कि "जो गृहस्थधर्ममें रहता हुआ पितरो, देवताओं और
अतिथियोंका सम्मान करता है और इच्द्रियसंयमपूर्वक
ऋतुकाले ही भार्याका उपगपन करता है, वही मुख्य
ब्रह्मचारी है। पाणिनिकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्
सदारिष्व शंकरने "अ इ 3 ण', ऋलृक्" इत्यादि चतुर्दश
माहेश्वर-सूत्रोकी वररूपमें प्रदान किया। जिसके कारण उन्होंने
व्याकरणझास्त्रका निर्माण कर महान् छोकोपकार किया।
तदनन्तर ओपदेयके चरिप्रका प्रसंग तथा श्रीमद्भागवतके
माहात््यका यर्णन, श्रीदुर्गासप्तशतीके माहयत्म्यमें व्याघकर्माकी
कथा, मध्यमचरित्रके माह्त्प्यमे कात्यायन तथा मगधके राजा
महानन्दकी कथा और उत्तरचरितकी महिमाके प्रसंगमें
योगाचार्य महर्षि पतञ्ञलिके चरित्रका रोचक वर्णन हुआ है।
भविष्यपुराणके प्रतिसर्गपर्वका तीस खण्ड मोदा और
कृष्णांश अर्थात् आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के चरित्र
तथा जयचनद्र एवं पृथ्वीराज चौहानकी वीरगाथाओंसे परिपूर्ण
है। इधर भारतमें जागनिक भाटरचित आल्हाका वीस्काथ्य
बहुत प्रचलित है। इसके बुन्देलखण्डी, भोजपुरी आदि कई
संस्करण हैं, जिनमें भाषाओंका थोड़ा-थोड़ा भेद है। इन
कथाओंका मूल यह प्रतिसर्गपर्व ही प्रतीत होता है । प्रायः ये
कथाएँ समकरञ्जनके अनुसार अतिश्षयोक्तिपूर्ण-सी प्रतीत होती
हैं, कितु ऐतिहासिक दृष्टिसे महत्त्वकी भी हैं। इस खण्डमें राजा
शालिवाहन तथा ईशामसीहकी कथा भी आयी है । एक समय
झकाधीदा शास्श्र्वाहनने हिसशिखरपर गौर-वर्णके एक सुन्दर
पुरुषको देखा, जो श्वेत वस्र धारण किये था। शकराजकी
जिज्ञासा करनेपर उस पुरुषने अपना परिचय देते हुए अपना
नाम ईशामसी बताया । साथ ही अपने सिद्धान्तोंका भी संक्षेपमें
वर्णन किया । शालियाहनके वंशम अन्तिम दसवें राजा
भोजराज हुए, जिनके साथ महामदकी कथाका भी वर्णन
मिलता है। जा भोजने मरुस्थल (मदीन) में स्थित
महादेवका दर्दान किया तथा भक्तिभावपूर्यक पूजन-स्तुति की ।
भगवान् शिवने प्रकट होकर म्लेच्छोंसे दूषित उस स्थानको
त्यागकर महाकालेश्वर तीर्थमें जानेकी आज्ञा प्रदान की।
तदनन्तर देशराज एवं वत्सराज आदि राजाओंके आविर्भावकी
कथा तथा इनके वेशामें होनेवाले कौरवोज् एवं पाण्डवांशोंके
रूपे उत्पन्न रजवंशॉंका विवरण प्राप्त होता है। कौरवांशोंकी
पराजय और पाष्डवांशोंकी विजय ह्येतौ है। पृथ्वोराज
चौहातको वीरगति प्राप्त होनेके उपरान्त सहोड़ीन (मुहम्मद