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ज्राह्मपर्त ]

* भगवान्‌ सूर्यके क्तोंके अनुन्नान तथा उनके मन्दिरोंमें अर्चन-पूजनकी विधि «

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संहारदाक्ति प्राप्त की है । ऋषिगण भी उनके ही कृपाप्रसादकों

आऋफ़्कर मन्त्रोंका साक्षात्कार करनेमें समर्थ होते हैं। इसलिये

तुम भो पूजन, त्रत, उपवास आदिसे वर्षपर्यत्त भगवान्‌ सूर्यकी

आराधना करो, जिससे सभी क्वेश दूर हो जायैगे और तुम

शान्ति प्राप्त करोगे" ।

(अध्याय ६१०-६३ )

++>-म्प्प्स 2

भगवान्‌ सूर्यके ब्रतोंके अनुष्ठान तथा उनके मन्दिरोंमें अर्चन-

पूजनकी विधि तथा फल-सप्तमी-त्रतका फल

दिण्डीने ब्रह्माजीसे पूछा--ब्रह्मनू ! आपने आदित्य-

क्रियायोगको मुझे बतत्मया, अब आप यह बतलानेकी कृपा

करें कि भगवान्‌ सूर्य उपवाससे कैसे प्रसन्न होते हैं ? उपचास

करनेवाले लिये क्या-क्या त्याज्य है ? आराधनामें क्या-क्या

करना चाहिये, इसका आप विस्तारपूर्वक वर्णन करें।

ब्रह्माजी बोले--दिष्डिन्‌ ! भगवान्‌ सूर्य पुष्प आदिद्वारा

पूजन करनेसे ही प्रसन्न हो जाते हैं और उत्तम फल देते हैं।

पापोंसे रहित होकर सदगुणोंका आश्रय ग्रहण कर, सभी

भोगोंका परित्याग करना ही उपयास कहलाता है” । अतः ऐसे

उपवाससे क्यों नहीं मनोयाज्छित फल प्राप्त होगा ? एक रात,

दो रात, तीन रात या नक्त-ब्रत करनेवाला निष्काम होकर

उपवासकर मन, वचन और कर्मसे सूर्यनारायणकी आराधनापि

तत्पर रहे तो ब्रह्मलोकको प्राप्त कर सकता है। यदि साधक

किसी कामनासे दत्तचित्त होकर भगवान्‌ सूर्यकी उपासना करता

है तो प्रसन्न होकर भगवान्‌ उसकी कामना पूर्ण कर देते हैं।

अन्धकास्का नाहा करनेवाले जगदात्मा सूर्यनारायणकी

तन्पयतापूर्वक आराधनाके बिना किसी प्रकार भी सद्गति नहीं

मिलती । अतः पुष्य, धूप, चन्दन, नैवेद्य आदिसे भक्तिपूर्वक

सूर्यकी पूजा और उनकी प्रसन्नताके लिये उपवास करना

चाहिये। उत्तम पुष्पके न मिलनेपर वृक्षोके कोमल पते अथवा

पूजन करना चाहिये। पुष्प, पप्र, फल, जल जो भी

यथाशक्ति पिले, उसे ही भक्तिके साथ भगवान्‌ सूर्यको अर्पण

करना चाहिये। इससे भगवान्‌ सूर्यको अतुल तुष्टि प्राप्त होती

है। सूर्वनारायणके मन्दिरमे सदा इड्‌ देनेपर घूलिमें जितनो

कणिकाएँ होती है, उतने समयतक सूर्यके समान होकर वह

स्वर्गमें रहता है । मन्दिरके ख़ेटे भागका भी मार्जन करनेपर उस

दिनके पासे व्यक्ति मुक्त हो जाता है। जो गोमयसे, मृत्तिका

अथवा अन्य धातुओंके चूर्णो मन्दिरे उपलेषन करता है,

वह विमानपर चढ़कर सूर्यल्लोकमें जाता है। मन्दिरमें जलसे

फ्िड़काव करनेवाला वरुणलोकमें निवास करता है । जो छेपन

किये हुए मन्दिस्में पुष्प बिखेरता है, यह कभी दुर्गति नहीं प्राप्त

करता। मन्दिरे दीपक प्रज्वलित करनेवाल्म्र व्यक्ति सभी

ऋतुओमें सुखप्रद सवारी प्राप्त करता है। ध्वजा चढ़ानेवाल्के

ज्ञात और अज्ञात सभी पाप पताकाके वायुस हिलनेपर नष्ट हो

जाते हैं। गीत, याद्य और नृत्यके द्वारा मन्दिरमे उत्सव

करनेवाला उत्तम विमानमें चैठता है, गन्धर्व ओर अप्सराएँ

उसके आगे गान और नृत्य करती हैं। जो मन्दिरमे पुराणका

पाठ करता है, उसे श्रेष्न बुद्धिकी प्राप्ति होती है और वह

जातिस्मर (सभो जन्मोकी बात जाननेवाखर) हो जाता है।

दिष्डिन्‌ ! सूर्यको आराधनासे जो चाहो वह प्राप्त कर सकते

हो । इनकी आराधनासे कई ल्त्रेग गन्धर्व, कतिपय विद्याधर,

कतिपय देवता बन गये है । इन्ने इनकी आराधनासे ही

इन्द्रपद प्राप्त किया है । ब्रह्मचारी, गृहस्य और वानप्रस्य एवं

ख्रियोंके ये ही उपास्य हैं। जितेद्धिय संन्यासी भौ इनके

अनुग्रहसे ही मुक्तिको प्राप्त करते हैं, क्योंकि ये ही मोक्षके द्वार

हैं। इस तरह सभी वर्णं और आश्रमो आश्रय एवं परमगति

भगवान्‌ सूर्य ही हैं।

दिष्डिन्‌ ! अब मैं काप्य उपवास और फल-समप्रमीका

वर्णन करता हूँ। फल-सप़्मीका त्रत करनेसे सभी पाप नष्ट हों

जाते हैं और सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। भाद्रपद पासकी शुषा

चतुर्थी अयाचित-त्रत कर पञ्चमीको एक बार भोजन करे,

यष्टीको जितक्रोध, जितेद्धिय होकर पूर्ण उपवास को और

१- क्रियायोगका वर्णन सभो पुरालोते मिलता है, विटोषरूपसे धचचपुतणका क्रियायोगसार-स्तष्ड द्रष्टल्य है।

२-उपायताय पापेभ्यो यस्तु चसो गुण: सह । ठपवासः स धिक्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः ॥

(ब्राह्मपर्त ६४ । ४)

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