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+ पुराण परं पुण्यं भविष्यं सर्वसौसूयदम्‌ +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

वहन करनेवाले और रथके साथ जनेवाले सूर्यलोकमें निवास

करते है ।

रुकने कहा--हे व्रह्मन्‌ ! मन्दिरमे प्रतिष्ठित प्रतिमाकों

किस प्रकार उठाना चाहिये और किस प्रकार रथमें विराजमान

करना चाहिये। इस विषयमें मुझे कुछ संदेह हो रहा है, क्योंकि

वह प्रतिमा तो स्थिर अर्थात्‌ अचल प्रतिप्ठित है। अतः उसे

कैसे चलाया जा सकता है ? कृपाकर आप मेरे इस संशयकों

दूर करें।

ब्रह्माजी बोले--संवत्सरके अवयवोके रूपमें जिस

रथका पूर्वमें मैंने वर्णन किया है, वह रथ सभी रथॉमें पहरा

रथ है, उसको देखकर हौ लिश्रकर्मने सभी देवताओंके लिये

अछग-अछग विविध प्रकारके रथ बनाये हैं। उस प्रथम

रथकी पूजाके लिये भगवान्‌ सूर्यने अपने पुत्र मनुकों वह रथ

प्रदान किया । मनुने राजा इशक्ष्वाकुक्म दिया और तबसे यह

रथयात्रा पूजित हों गयी और परम्परासे चली आ रहो है।

इसलिये सूर्यकी रथयात्राका उत्सव मन्वाना चाहिये। भगवान्‌

सूर्य तो सदा आकाङामें भ्रमण करते रहते हैं, इसलिये उनकी

प्रतिमाको चलानेमे कोहं भी दोष नहीं है। भगवान्‌ सूर्यके

श्रमण करते हुए उनका रथ एवं मण्डल दिखायी नहीं पड़ता,

इसलिये मनुष्येनि रथयात्राके द्वारा हो उनके रथ एवं मण्डलूका

दर्शन किया है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवोकौ प्रतिमाके

स्थापित हो जानेके बाद उनको उठाना नहीं चाहिये, कितु सूर्य -

नारायणक रथयात्रा प्रजाओंकी शान्तिके लिये प्रतिवर्ष करनी

चाहिये। सोने-चाँदी अथवा उत्तम काप्ठका अतिशय रमणीय

और बहुत सुदृढ़ रथका निर्माण करना चाहिये। उसके बीचमें

भगवान्‌ सूर्यकी प्रतिमाको स्थापित कर उत्तम लक्षणोंसे युक्त

अतिशय सुशौल हरित वर्णके घोर्दोको रथम नियोजित करना

चाहिये। उन घोड़ोंका केशरसे रैगकर अनेक आधृषणों

पृष्पमाल्मओं और चैवर आदिसे अलैकृत करना चाहिये।

रथके लिये अर्थ्य प्रदान करना चाहिये। इस प्रकार रधको

तैयार कर सभी देवताओंकी पूजा कर व्राह्मण-धोजन कराना

चाहिये। दक्षिणा देकर दीन, अंधे, उपेक्षितों तथा अनाथोंकों

भोजन आदिसे संतुष्ट करना चाहिये। उत्तम, मध्यम अथवा

अधप किसी भी य्यक्तिको विमुख नहीं होने देना चाहिये।

रथयात्रा-स्वरूप इस सूर्यमहायागमें भूखसे पीडिते, बिना

भोजन किये यदि कोई व्यक्ति भग्र आश्यावात्म्र होकर लट

जाता है तो इस दुष्कृत्यसे उसके स्वर्गस्थ पितरोंका अधःपतन

हो जाता है'। अतः सूर्य भगवानके इस यज्ञम भोजन और

दक्षिणासे सबको संतुष्ट करना चाहिये, क्योंकि बिना दक्षिणाके

यज्ञ प्रास्त नहीं होता तथा निप्रलिखित मन््ोसे देवता अको

उनका प्रिय पदार्थ खपर्पित करना चाहिये--

बलिं गृह्णन्तु पे देवा आदित्या वसवस्तथा ॥

परुतोऽधाश्चिनौ स्द्राः सुपर्णा पन्नगा ग्रहा: |

असुरा यातुधानाश्च रथस्था यास्तु देखता: ॥

दिक्पाला लोकपालाश्च ये च लिप्रविनायकाः ।

जगत: स्वस्ति कुर्वन्तु येच दिव्या पहर्षयः ॥

मा विप्न॑ मा च में पाप॑ मा च मे परिपन्थिनः ।

सौम्या भवन्तु तुप्ताश देवा भूतगणास्तथा ॥

(आहापर्थ ५५१ ६८--७१)

इन मत्से बलि देकर “जामदेव्य०', "पवित्र"

'मानस्तोक*' तथा "रथन्तरः इन ऋचाओंका पाठ करे ।

अनन्तर पुण्याहवाचन और अनेक प्रकारके मङ्गरः वाद्योंकी

ध्वनि कर सुन्दर एवं समतल मार्गपर रथको चलाये, जिससे

कहींपर धक्का न रगे । घोड़ेके अधावपें अच्छे बैल्लेंको रथपें

लगाना चाहिये या पुरुषगण ही रथको खींचें। तीस या सोलह

ब्राह्मण जो शुद्ध आचरणवाले हों तथा ब्रती हों, वे प्रतिमाको

मच्दिर्से उठाकर बड़ी सावधानीसे रथपें स्थापित करें। सूर्य-

प्रतिमाके दोनों ओर सूर्यदेवकी राज्ञी (संज्ञा) एवै निश्षुभा

(छाया) नामक दोनों पत्नियोंकों स्थापित करे। निकषुभाको

दाहिनी ओर तथा राज्ञीको बायीं ओर स्थापित करना चाहिये ¦

सदाचारी वेदपाटी दो ब्राह्मण प्रतिमाओंके पीछेकी ओर यै

और उन्हें सैंभालकर स्थिर रखें। सारथी भी कुशल रहना

चाहिये। सुवर्णदण्डसे अलैकृत छत्र रथके ऊपर लगाये,

अतिद्षाय सुन्दर रत्नोंसे जित सुवर्णदण्डसे युक्त ध्वज रथपर

चढ़ाये, जिसमें अनेक रेगोंकी सात पताकाएँ लगी हों। रथके

आगेके भागमें सारथिके रूपमे ब्राह्मणको बैठना चाहिये।

सूर्क्रलौ तु |वतते एवमाहूर्मनौपिणोः च

यशित्तयति भटः आ्ुधावातपफ््पीडित: | अदातुर्हि पिलेसेन स्वर्गल्यानपि . पातयेत्‌ ॥

(आफ ५५॥ ६७-६६)

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