आह्मपर्वं ]
* सप्तमी-कल्पमें भगवान् सूर्यके परिवारका निरूपण «
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भगवान् सूर्यने छयाको रौ अपनी पतौ समञ्चा । कुछ
समयके बाद छखयासे इनैश्चर और तपती नामकी दो संताने
उत्पन्न हुईं। छाया अपनी संतानपर यमुना तथा यमसे अधिक
सहे करती थी। एक दिन यमुना और तपती विवाद हो
गया पारस्परिक शापसे दोनों नदी हो गयीं। एक बार छायाने
यमुनाके भाई यमके तादित किया। इसपर यमने क्रुद्ध होकर
छायाको मारनेके लिये पैर उठाया। छयाने क्रुद्ध होकर दप
दे दिया--'मूढ ! तुमने मेरे ऊपर चरण उठाया है, इसलिये
तुम प्राणियोंका प्राणहिंसक रूपी यह बीभत्स कर्म तबतक
रहेगा, जबतक सूर्य और चद्ध रहेंगे। यदि तुप मेरे झापसे
कलुषित अपने पैस्कों पृथ्वीपर रखोगे तो कृमिगण उसे खा
आयैगे।'
यम और छायाका इस प्रकार विवाद हो ही रहा धा कि
उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। यमने अपने पिता
भगवान् सूर्यसे कहा--'पिताजी ! यह हमारी माता कदापि
नहीं हो सकती, यह कोई और स्री है । यह हमें नित्य क्रूर
भावसे देखती है और हम सभी भाई-बहनोंमें समान दृष्टि तथा
समान व्यवहार नहीं रखती । यह सुनकर भगवान् सूर्यने क्रुद्ध
छोकर छायासे कहां--'तुम्हें यह उचित नहीं है कि अपनो
संतनोमि ही एकसे पेम करो और दूससे देष । जितनी संताने
हों सबको समान हो समझना चाहिये । तुप विषम-दृष्टिसे क्यो
देखतो द्ये ?' यह सुनकर छाया तो कुछ न बोली, पर यमने
पुनः कहा--'पिताजी ! यह दुष्टा मेरी माता नहीं है, बल्कि
मेरी माताकी छाया है। इसीसे इसने मुझे शाप दिया है।' यह
कहकर यमने पूरा वृत्तान्त उन्हें बतत्म दिया । इसपर भगवान्
सूर्यने कहा--'बेटा ! तुम चिन्ता न करों । कृमिगण मौस और
रुधिर लेकर भूलोकको चले जायैंगे, इससे तुम्हारा पाँव गलेगा
नहीं, अच्छा हो जायगा और ब्रह्माजीकी आज्ञासे तुम
ल्म्रेकपाल - पदको भी प्राप्त करोगे। तुम्हारी बहन यमुनाका
जल गङ्गाजलके समान पवित्र हो जायगा और तपतीका जल
नर्मदाजलके तुल्य पवित्र माना जायगा। आजसे यह छाया
सबके देहोंमें अवस्थित होगी।'
ऐसी व्यवस्था और मर्यादा स्थिर कर भगवान् सूर्य दक्ष
प्रजापतिके पास गये और उन्हें अपने आगमनका कारण बताते
हुए सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। इसपर दक्ष प्रजापतिने
कहा--' आपके अति प्रचण्ड तेजसे व्याकुल होकर आपकी
भार्या उत्तरकुरु देके ची गयी है। अब आप विश्वकर्मासे
अपना रूप श्रदास्त करवा लें।' यह कहकर उन्होंने
विश्वकर्माको बुलाकर उनसे कहा--'विश्वकर्मन् ! आप इनका
सुन्दर रूप प्रकादित कर दें।' तब सूर्यकी सम्मति पाकर
विश्वकर्मन अपने तक्षण-कर्मसे सूर्यको खरादना प्रारम्भ
किया। अड्जोंके तराशनेके कारण सूर्यकों अतिदाय पीड़ा हो
रहो थी और बार-बार मूर्च्छा आ जाती थो। इसोलिये
किश्वकर्माने सब अङ्ग तो ठीक कर लिये, पर जब पैरोंकी
अद्जुल्योंकों छोड़ दिया तब सूर्य भगवानते कहा--
"विश्वकर्मन् ! आपने तो अपना कार्य पूर्ण कर लिया, पतु हम
पीड़ासे व्याकुल हो रहे हैं। इसका कोई उपाय बताइये।'
विश्वकर्माने कहा--' भगवन् ! आप रक्तचन्दन और करवीरके
पुष्योका सम्पूर्ण शरीरमें छेप करें, इससे तत्काल यह चेटना
शान्ते हो जायगी।' भगवान् सूर्यने विधकर्माक कथनानुसार
अपने सारे शरीरमें इनक्य लेप किया, जिससे उनकी सारी
वेदना मिट गयो । उसी दिनसे रक्तचन्दन और करवोरके पुष्प
भगवान् सूर्यको अत्यन्त प्रिय हो गये और उनकी पूजामें प्रयुक्त
होने लगे। सूर्यभगवान्के इारीरके ख़रादनेसे जो तेज निकला,
उस तेजसे दैल्योंके बिनाश करनेवाले बज्रका निर्माण हुआ ।
भगवान् सूर्यने भी अपना उत्तम रूप प्राकर प्रसन्न-
घनसे अपनी भार्याके दर्कनोॉंकी उत्कण्ठासे तत्काल उत्तर-
कुरुकी ओर प्रस्थान किया । वहाँ उन्होंने देखा कि यह घोड़ीका
रूप धारणकर विचरण कर रही है। भगवान् सूर्य भी अश्चका
रूप धारण कर उससे मिले।
पर-पुरुषकी आशंकासे उसने अपने दोनों नासापुटॉसे
सूर्यके तेजकों एक साथ बाहर फेंक दिया, जिससे अध्विनी-
कुमारोंकी उत्पत्ति हुई और यही देवताओकि वैद्य हुए। तेजके
अन्तिम अंशसे रवन्तकी उत्पत्ति हुई। तपती, इनि और
सावर्णि--ये तीन संतानें छायासे और यमुना तथा यम संज्ञासे
उत्पन्न हुए। सूर्यको अपनी भार्या उत्तरकुरुमें सप्तमी तिथिके
दिन प्राप्त हुई, उन्हें दिव्य रूप सप्तमौ तिधिको ही मिला तथा
संताने भी इसी तिथिको प्राप्त हुई, अत: सपमी तिथि भगवान्
सूर्यको अतिदाय प्रिय है।
जो व्यक्ति पञ्चमी तिथिको एक समय भोजनकर पष्ठीको