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* पुराण परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् «
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
तथा सूर्यके समान तेजस्वी, वैद्य सर्प अलसी अथवा बाण-
पुष्पके समान वर्णवाले एवं अनेक रेखाओंसे युक्त तथा द्र
सर्प अञ्जन अथवा काकके सम्तान कृष्णवर्ण आर धूम्रवर्णके
होते हैं। एक अङ्गु्ठके अन्तरमें दो दंश हों तो बालसर्पका
काटा हुआ जानना चाहिये। दो अङ्गु अन्तर हो तो तरुण
सर्पका, ढाई अङ्गुल अन्तर हो तो वृद्ध सर्पका दंश समझना
चाहिये।
अनन्तनाग सामने, वासुकि बायीं ओर, तक्षकं दाहिनी
ओर देखता है और कर्कोटककी दृष्टि पीछेकी ओर होती है।
अनन्त, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्य, रखपाल
और कुलिकि--ये आठ नाग क्रमश: पूर्वादि आठ दिशाओंकि
स्वामी हैं। पदम, उत्पल, स्वस्तिक, त्रिशूल, महापद्य, दल, क्षत्र
और अर्धचन्द्र--ये क्रमशः आठ नागेकि आयुध हैं। अनन्त
और कुलिक--ये दोनों ब्राह्मण नाग-जातियाँ हैं, झंख और
वासुकि क्षत्रिय, महापद्य और तक्षक वैज््य तथा पद्य और
ककॉटक शूद्र नाग हैं। अनन्त और कुलिक नाग शुक्कववर्ण तथा
ग्रह्माजीसे उत्पन्न हैं, वासुकि और शंखपाल रक्तवर्ण तथा
अग्निस उत्पन्न है, तक्षक और महाप स्वल्प पीतवर्णं तथा
इन्द्रसे उत्पन्न है, पद्म ओर कर्कोटक कृष्णवर्णं तथा यमराजसे
उत्पन्न है ।
सुमन्तु मुनिने पुनः कहा--राजन् ! स्किः ये लक्षण
और चिकित्सा महर्षि कश्यपने महामुनि गौतमको डपदेशके
प्रसंग कहे थे और यह भी बताया कि सदा भक्तिपूर्वक
नागोंकी पूजा करे और पञ्चमी विशेषरूपसे दूध, खीर
आदिसे उनका पूजन करे । श्रावण शक्ना पश्षमीको द्वास्के दोनों
ओर गोबरके द्वार नाग बनाये। दही, दूध, दूर्वा, पुष्प, कुदा,
गन्ध, अक्षत और अनेक प्रकारके नैवेद्योंसे नागॉका पूजनकर
ब्राह्मणोंको भोजन कराये। ऐसा करनेपर उस पुरुषके कुले
कभी सर्पोंका भय नहीं होता।
घी, खीर, दूध, पुष्प आदिसे पूजनकर गुग्गुलकी धूप दे । ऐसा
करनेसे तक्षक आदि नाग प्रसन्न होते हैं और उस पुरुषकी सात
पीढ़ीतककों साँपका भय नहीं रहता!
आश्विन मासकी पञ्ममीकों कुझका नाग बनाकर गन्ध,
पुष्प आदिसे उनका पूजन करे । दूध, घी, जलसे स्नान कराये ।
दूधमें प्के हुए गेहूँ और विविध नैवेदयोका भोग लगाये । इस
पञ्ममीको नागकों पूजा करनेसे वासुकि आदि नाग संतुष्ट होते
है और वह पुरुष नागस्प्रेकमों जाकर यहुत कालतक सुखका
भोग करता है। राजन ! इस पह्रमी तिथिके कल्पका मैंने
वर्णन किया। जहाँ ' ॐ कुरुकुल्ले फट् स्वाहा" --यह मन्त्र
पढ़ा जाता है, यहाँ कोई सर्प नहीं आ सकता! ।
(अध्याय ३६--३८)
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षष्ठी-कल्प-निरूपणमें स्कन्द्-षष्ठी-त्रतकी महिमा
सुमन्तु मुनि खोले--राजन् ! अय यै षष्ठी तिधि- कृत्तिकाओंके पुत्र कार्तिकेयका आविर्भाव हुआ था। वे
कल्पका वर्णन करता हूँ। यह तिथि सभी मनोश्थोंको पूर्ण भगवान् शङ्कर, अग्नि तथा गड़के भी पुत्र कटे गये हैं। इसो
करवाल है। कार्तिक मासकी पष्ठी तिधिच्त्े फल्म्रहास्कर यह पष्ठी तिथिको स्वामिकार्तिकेय देवसेनाके सेनापति हुए। इस
तिथित्रत किया जाता है'॥ यदि राज्यच्युत राजा इस ब्रतका तिथिको ब्रतकर धृत, दो, जल और पुष्पोंसे स्वापि-
अनुष्ठान करें तौ चह अपना ग्रज्य प्राप्त कर लेता है। इसल्ययि कार्तिकेयक्य दक्षिणकी ॐ मुखकर अर्ध्य देना चाहिये।
विजयकी अभिलापा रखनेवाले व्यक्तिको इस ब्रतका प्रयत्न- आर्ध्यदानका मन्त्र इस प्रकार है--
पूर्वक पालन करना चाहिये। सप्तर्षिदारजआ स्कन्द स्वाहापतिखमुद्धव ।
यह तिथि स्वामिकार्तिकेयक अत्यन्त प्रिय रै । इसी दिन सुदार्यमाग्निज विधो गङ्गागरभं नमोऽस्तु ते।
१-कश्मौर नागोंका देश ग्ना आता है । “न्रीलमतपुराण'गें। इसका विल्ृत यर्गन रै ।
२-पमद्गोक अनुसार ररर शा पथे स्कत्द-पह्टी होली है तथा कार्तिक दला यष्ठौको रणि -पह्टी खाती जाती है, जिस दिन सम्पूर्ण भारपे
सूर्योफसना हात है । परेतु यां कार्तिक झुका पातके रूपे वर्णन आया है, यह गणपा भभान्लसार { अमावास्या पूर्ण हरेवा मास) -के अनुसार
प्रतत देती है।