जाह्यपर्य }
+ विनायक -पुजाको माहात्य *
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दाँत बराबर और धेत झोते हैं, वह उत्तम स्त्री होती है । मेदकके
समान कृक्षिवाली एक ही पुत्र उत्पन्न करती है और यह पुत्र
राजा होता है। हैखकै समान मुदु वचन बोलनेवाली, शहदके
समान पिङ्गल वर्णवाली स्न धन-धान्यसे सम्पन्न होती है, उसे
आठ पुत्र होते हैं। जिस स्त्रीके लेबे कान, सुन्दर नाक और भौंह
घनुषके समान टेढ़ी होती है, वह अतिशय सुका भोग करती
है। तन्वी, इयामवर्णा, मधुर भाषिणी, शाङ्घके समान अतिदाय
स्वच्छ दाँतोंयाली, स्तिग्ध अज्लॉंसे समन्वित स्रौ अतिदराय
ऐश्वर्यको प्राप्त करती है। बिस्तीर्ण जंघाओंवात्मीे, वेदीके समान
मध्यभागवाल्ी, विशाल नेत्रॉवाली स्त्री रानी होती है। जिस
खीके वाम स्तनपर, हाथमें, कानके ऊपर या गलेपर तिल
अथवा मसा होता है, उस स््रौको प्रथम पुत्र उत्पन्न होता है ।
जिस ख्तरीका पैर रक्तवर्ण हो, ठेहुने बहुत ऊँचे न हों, छोटी एड़ी
हो, परस्पर मिली हुई सुन्दर ओगुलियाँ हों, त्प्ल नेत्र
हॉ--ऐसी खी अत्यन्त सुख भोग करती है। जिसके पैर
बड़े-बड़े हों, सभी अद्गोमे रोम हों, छोटे और मोटे हाथ हों,
वह दासी होती है। जिस स्त्वैके पैर उत्कट हों, मुख विकृत हो,
ऊपरके ओठके ऊपर रोम हो वह शौघ्र अपने पतिको मार देती
है। जो स्त्री पवित्र, पतिव्रता, देवता, गुरु और ब्राह्मणोंका भक्त
होती है, वह मानुषी कहलाती है। नित्य खान करनेवाले,
सुगश्ित द्रव्य लगानेवाली, मधुर वचन बोलनेवाली, थोड़ा
खानेवारो, कय सोनेवाली और सदा पवित्र रहनेवाली स्तरों
देवता होती है। गुप्तरूपसे पाप करनेवाली, अपने पापकों
न करनेवाली खी मार्जारी-संज्ञक होती है। कभी हैंसनेवाली,
कभी क्रीडा करनेवाली, कभी क्रोध करनेवाली, कभी प्रसन्न
रहनेवाली तथा पुरुषोंके मध्य रहनेवाली स्त्री गर्दभी-श्रेणीकी
होती है । पति और वान्धवोकि द्वारा कहे गये हितकारी वचनको
न माननेकालो, अपनी इच्छाके अनुसार विहार करनेयाली स्त्री
आसुरी कही जाती है। बहुत ख्ानेवाली, बहुत बोलनेवाली,
स्तोेटे वचन बोलनेवाल्गी, पतिको मारनेवाली खो राक्षसी-संज्ञक
होती है। शौच, आचार और रूपसे रहित, सदा मलिन
रहनेवाली, अतिदाय भयंकर स्त्री पिशाची कहलाती है।
अतिशय चछल स्वभाववाल्ी, चपल नेत्रॉवाल्मे, इधर-उधर
देखनेवाली, त्म्रेभी नारौ वानरो-संज्ञक होती है। चन्द्रमुखी,
मदमत्त हाथीके समान चलनेबाली, रक्तयर्णके नखोवाली, शुभ
छक्षणोसे युक्त हाथ-पैरवाली ख्रो विद्याघरी-श्रेणीकी होतो है ।
वीणा, मृदङ्ग, वंशौ आदि वा्योकि शब्दोंको सुनने तथा पुष्पों
और विविध सुगन्धित द्रष्योंमें अभिरुचि रखनेखाली स्रो
गाख्थवीं-श्रेणीकी होती है।
सुमन्तु मुनिने कहा--राजन् ! ब्रह्माजी इस प्रकार स्त्री
और पुरुषोंके लक्षणोंक्रो स्वाभिकार्तिकेयको चतत्परकरे अपने
छोककों चले गये।
(अध्याय २८)
विनायक-पूजाका माहात्म्य
इतानीकने कहा--मुने अव आप मुझे भगवान्
गणेश्की आराधनाके विषयमे बतलायें।
सुमन्तु मुनि बोले- राजन् ! भगवान् गणेशकी
आयधरमनामें किसी तिथि, नक्षत्र या उपवासादिकौ अपेक्षा नहीं
छोतों। जिस किसी भी दिन श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान्
गणेशकी पूजा की जाय तो वह अभीष्ट फल्म्रेंकों देनेवाल होती
है. । कामना-भेदसे अलग-अलग वसतु आसे गणपतिक मूर्ति
बनाकर उसको पूजा करनेसे म्पोवाज्छित फलकी प्राप्ति होती
है। 'महाकर्णायों खिराहे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो
देन्तिः प्रचोदयात् ।'--यह गणेश-गायञी है। इसका जप
६-फरम्परासे प्रसल्ति गणेदा -गायकीमें "एकदल्ताय' वार है।
२एकदन्ते अगध गरौ तुष्टिमागते । पितुदेयगनुष्याधा:
करना चाहिये।
शुकू पक्षकी चतुर्थीकों उपवास कर जो भगवान्
गणेशका पूजन करता है, उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं
और सभी अनिष्ट दूर हो जाते हैं। श्रीगणेशजीके अनुकूल
होनेसे सभी जगत् अनुकुल हो जाता है। जिसपर एकदन्त
भगवान् गणपति संतुष्ट होते हैं, उसपर देवता, पितर, मनुष्य
आदि सभी प्रसन्न रहते है" । इसलिये सम्पूर्ण विश्वोंको निवृत्त
करनेके सगि श्रद्धा-भक्तिपूर्वक गणेझजीकी आराधना करनी
चाहिये।
(अध्याय २९-३०)
सर्वै तुप्यक्ति भातत॥ (ब्रायपर्व ३०८)