ब्राह्म्यं ]
* फल-ब्वितीया (अशून्यतायन-क्रत)का ख्रत-विधान «
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कह कार्तिक मासके शुङ्ग पक्षकी द्वितीयासे वतको आरम्भ करे
और वर्षपर्यन्तं संयमित होकर पुष्प-भोजन करे । जो उत्तम
हविष्य पुष्प उस ऋतुमें हों उसका आहार करे । इस प्रकार एक
वर्ष ब्रतकर सोने-चाँदीके पुष्य बनाकर अथवा कमलूपुष्पोंको
ब्राह्मणोंको देकर व्रत सम्पन्न करे । इससे अश्विनीकुमार संतुष्ट
होकर उत्तम रूप प्रदान करते हैं । रतौ उत्तम विमानोंमें बैठकर
स्वर्गमें जाकर कल्पपर्यन्त विविध सुखोका उपभोग करता है।
फिर मर्व्यलोकमें जन्म लेकर वेद-वेदाङ्गौका ज्ञाता, महादानी,
आधि-व्याधिरयोसे रहित, पुत्र-पौन्नोंसे युक्त, उत्तम पत्रीवाला
ब्राह्मण होता है अथवा मध्यदेशके उत्तम नगरे राजा होता है ।
रजन् ! इस पुष्यट्वितीया-ब्रतका विधान मैंने आपको
अतत्मया। ऐसी ही फलद्धितीया भी होती है, जिसे
अशृन्यशयना-द्वितीया भी कहते हैं। फलद्वितीयाको जो
श्रद्धापूर्वक ब्रत करता है, वह ऋद्धि-सिद्धिकों प्राप्तकर अपनी
भार्यासहित आनन्द प्राप्त करता है।
(अध्याय १९)
फल-द्वितीया (अशुन्यशयन-श्रत) का ब्रत-विधान और द्वितीया-कल्पकी समाप्ति
राजा झतानीकने कहा--मुने ! कृपाकर आप
फलद्धितीयाका विधान कहें, जिसके करनेसे स्त्री विधवा नहीं
होती और पति-पत्नीका परस्पर वियोग भी नहों होता ।
सुमन्तु मुनिने कहा--राजन्! मैं फलद्वितीयाका
विधान कहता हूँ, इसीका नाम अशून्यज्ञयना-द्वितीया भी है।
इस ब्तको विधिपूर्वकं करनेसे स्री विधवा नहीं होती और
स््री-पुरुषका परस्पर वियोग भी नहीं होता। क्षीरसागरमे
लक्ष्मीके साथ भगवान् विष्णुके शयन करनेके समय यह व्रत
होता है। श्रावण पासके कृष्ण पक्षकी द्वितीयाके दिन लक्ष्मीके
साथ श्रीवत्सधारी भगयान् श्रीविष्णुका पूजक्कर हाथ जोड़कर
इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये--
अ्रीवत्सधारिन् श्रीकान्त श्रीवत्स श्रीपतेध्व्यय ।
` गाईस्थ्यं मा प्रणान्ञं में चातु श्र्मार्थकामदम् ॥
-गावश्च मा प्रणह्यन्तु सा प्रणश्यत्तु से जनाः ॥
जामयो सा प्रणदयन्तु पत्तो दाम्पत्यभेदतः।
रक्ष्म्या वियुन्येऽ देव न कदाचिद्यथा भवान् ॥
तथा कलत्रसम्बन्धो देव या ये वियुज्यताम् ।
लक्ष्या न शल्यं वरद यथा ते झयने सदा ॥
शाख्या मसाप्यकुत्यास्तु तथा तु मथुसूदन ९ ।
(आद्यपर्य २०।७-- ११)
इस प्रकार विष्णुकी प्रार्थना करके व्रत करना चाहिये । जो
किया है।
कलक -
फल भगवानको प्रिय है, उन्हे भगवान्की डाय्यापर समर्पित
करना चाहिये और स्वयं भी रात्रिके समय उन्हीं फलॉको
खाकर दूसरे दिन ब्राह्मणोंको दक्षिणा देनी चाहिये ।
राजा शातानीकने पूछा--महामुने ! भगवान् विष्णुको
कौन-से फल प्रिय हैं, आप उन्हें बताये । दूसरे दिन ब्राह्मणोंको
क्या दान देना चाहिये ? उसे भी कहें।
सुमन्तु मुनि ओोले--एजन् ! उस ऋतुमें जो भी फल
हों और पके हों, उन्हींक्े भगवान् विष्णुके लिये समर्पित करना
चाहिये। कड़वे-कच्चे तथा खट्टे फल उनकी सेवामें नहीं चढ़ाने
चाहिये। भगवान् विष्णुको खजूर, नारिकेल, मातुलुङ्ग अर्थात्
बिजौरा आदि मधुर फल्लॉंको समर्पित करना चाहिये। भावान्
मधुर फल्मरेंसे प्रसन्न होते हैं। दूसरे दिन ब्राह्मणॉंको भी इसी
प्रकारके मधुर फल, वस, अन्न तथा सुवर्णक दान देना चाहिये ।
इस प्रकार ओ पुरुष चार मासतक ब्रत करता है, उसका
सीन जऑतक गार्हस्थ्य जीयन नष्ट नहीं होता और न तो
ऐश्वर्यकी कमी होती है । जो खी इस व्रत्को करती है वह तीन
जन्मोतक न विधवा होती है न दुर्भगा ओर न पतिसे पृथक् ही
रहती है ।
इस व्रते दिन अश्विनीकुमारोंकी भी पूजा करनी
चाहिये। राजन् ! इस प्रकार मैंने द्वितीया-कल्पका वर्णन
(अध्याय २०)
१-है श्रीवत्स -चिहकरे ध्वन करतेवाले लके स्वामी रक्त भगवान् विष्णु ! धर्म, अर्थ और का्मके पूर्ण करनेकाला मेरा गृहस्थ-आश्रम
कभी नष्ट न हो। मेरो गौएँ भो नष्ट त हों न रो सेंरे परिकारके लोग कष्टे पटे एवं च ष्ट हों। में! घरकी स्या भौ कभी विपत्तिफेंसे २ पड़े
और हम पति-पत्नौमें भी कभी मतभेद उत्पन्न न हो। हे देव ! मैं लक्ष्मीसे कभी वियुक्त न न होऊँ और पत्नीसे भी कभी मुझे सियोगाक्री प्रपि न हो ।
प्रभो ! जैसे आपकी राच्या कभी लक्ष्योसे शून्य कहीं होती, ठसी प्रकार मेरी झ्ण्या धी कभी शोभारहित एवं लूद्ष्मी तथा पत्नीसे शुत्प > हो ।