ब्राह्मपर्ण ]
» पतित्रता सयो कर्तव्य एवं सदाचारः वर्णन *
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पति, णि देवता ब्राह्मण हैं तथा ब्राह्मणेंकि देवता अप्नि हैं
और प्रजाओंका देवता राजा दै ।
खियोंकि त्रिवाण-प्राप्तिके दो मुख्य उपाय हैं--प्रथम सब
प्रकारसे पिको प्रसन्न रखना और द्वितीय आचरणकी
पवित्रता । पतिके चित्तके अनुकूल चलनेसे जैसी प्रीति पतिकी
स्त्रीपर होती है वैसी प्रीति रूपसे, यौवनसे और अलंकारादि
आभूषणोसे नहीं होती' । क्योकि प्रायः यह देखा जाता है कि
उत्तम रूप और युवावस्थावाली स्वयां भी पतिके विपरीत
आचरण केसे दौर्भाग्यक प्राप्त करती हैं और अति कुरूप
तथा हीन अवस्थायाली स्तियाँ भी पतिके चित्तके अनुकूल
चलनेसे उनकी अत्यन्त प्रिय हो जाती हैं। इससिग्यि पतिके
चित्तका अभिप्राय भलीभाँति समझना और उसके अनुकूल
आचरण करना यही ल्ि्योकि लिये सब सुखोका हेतु है और
यही समस्त श्रेष्ठ योग्यताओंका कारण है। इसके बिना तो
स्के अन्य सभी गुण बच्ध्यत्वको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात्
निष्फल हो जाते हैं और अनर्थके कारण बन जाते हैं। इसलिये
सको अपनी योग्यता (परचित्तज्ञता) सर्वथा बढ़ाते रहना
चाहिये।
पतिके आनेका समय जानकर उनके आनेके पूर्व ही वह
घरको स्वच्छ कर बैठनेके लिये उत्तम आसन किख दे तथा
पतिदेवके आनेपर स्वयं अपने हाथसे उनके चरण धोकर उन्हें
आसनपर बैठाये और पंखा हाथमें लेकर धीरे-धीरे रये
और सावधान होकर उनकी आज्ञा प्राप्त करनेकी प्रतीक्षा करे ।
ये सब काम दासी आदिसे न करवाये । पतिके स्नान, आहार,
पानादिमें स्पृहा दिखाये। पतिके संकेतोंकों समझकर
सावधानीपूर्वक सभी करयो करें और भोजनादि निवेदित
करे । अपने बन्धु-वान्धर्वो तथा पतिके बन्धुओं और सपत्ीके
साथ स्वागत-सत्कार पतिकी इच्छानुसार करे अर्थात् जिसपर
पतिकी रुचि न देखे उससे अधिक शिष्टाचार न करे । खियोकि
लिये सभी अवस्थाओंमें स्वकुलक् अपेक्षा पतिकुल ही विशेष
पूज्य होता है; क्योंकि कोई भी कुलीन पुरुष अपनी कन्यासे
उफ्कारकी आदा भी नहीं रखता और जो रखता है वह
अनुचित ही है। कन्यका विवाह करनेके बाद फिर उससे
अपनी आजीविकाकी इच्छा करना यह महात्मा और कुलीन
पुरुषोंकी रीति नहों है, अतः स्के सम्बन्धियोंको चाहिये कि
वे केवल पित्रके हि्थ्ये, प्रीतिके लिये ही सम्बन्ध बढ़ानेकी
इच्छा करें और प्रसंगवदा यथाशक्ति उसे कुछ देते भी रहें।
उससे कोई वस्तु लेनेकी इच्छा न रखें। कन्याके
मायकेवाल्ेंको कन्याके स्वामीकी रक्षाका प्रय सर्वथा करना
चाहिये, उनकी परस्पर प्रीति-सम्बन्धकी चर्चा सर्यत्र करनी
चाहिये और अपनी मिथ्या प्रशंसा नहीं करनी चाहिये।
साधु-पुरुषोंका व्यवहार अपने सम्बन्धियोंके प्रति ऐसा
ही होता है।
जो स्त्री इस प्रकारके सदवृत्तको भस्प्रेभाति जानकर
व्यवहार करती है, वह पति और उसके बसन्धु-बास्धवोंक्पो
अत्यन्त मान्य होती है। पतिक प्रिय, साधु वृत्तवाली तथा
सम्बस्थियोमें प्रसिद्धिको प्राप्त होनेपर भी खीको लोकापबादसे
सर्वदा डरते रहना चाहिये; क्योकि सीता आदि उत्तम
चतित्रताओंकों भी ल्त्रेकाफ्कादके कारण अनेक कष्ट भोगने पड़े
थे। भोग्य होनेके कारण, गुण-दोषोंका ठीक-ठीक निर्णय न कर
पानेसे तथा प्रायः अविनयशीलताके कारण ख़्रियोकि
व्यवहारको समझना अत्यन्त दुष्कर है। ठीक प्रकारसे दूसरेकी
मनोवृत्तिको न समझनेके कारण तथा कपट-दृष्टिके कारण एवं
स्वच्छन्द हो जानेसे ऐसी बहुत हौ कम स्त्रियाँ हैं जो कलंकित
नही हो जातीं। दैवयोग अथवा कुयोगसे अथवा व्यवहास्की
अनभिज्ञतासे शुद्ध दृदयवाली स्त्री भी ल्लोकापवादको प्राप्त हो
जाती है । स्त्रियोंका यह दौर्भाग्य ही दुःख भोगनेका कारण है।
इसका कोई प्रतीकार नहीं, यदि है तो इसकी ओषधि है उत्तम
चरित्रका आचरण और लोक-ष्यवहारको ठीकसे समझना।
ब्रह्माजी ओले--मुनीश्चरों उत्तम आचरणवाली खी
भी यदि बुग सङ्गं करे या अपनी इच्छासे जहाँ चाहे चली जाय,
तो उसे अवद्य कक छगता है ओर झूठा दोष लगनेसे कुल
भी कलंकित हो जाता है । उत्तम कुलकी स्तरियोंके लिये यह
आवद्यक है कि वे किसी भी भांति अपने कुल-- पातृकुल,
१-प्तीध्िदेक्ता नार्या वर्णां ब्राह्यणदेवताः |ब्राह्मणा इप्निटेकास्तु प्रजा शाजन्यदेवता; ॥
तासौ चिवर्गससिद्धौ प्रदिष्ट कररणद्भयम् । भरर्यदनुकुलनलं
ज तथा यौवनं रेके नापि रूपे न भूषणम् । यथो प्रियानुकूलस्व॑ सिद्धं राच्मदनौयषम् ॥
यध शीरमचिष्ुतम् ॥
(ब्राह्मपर्व ६३ ॥ ३५.३७)