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* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ ॥

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

अवस्थित हैं, वे मुझंसे निर्भय होकर सुखी रहें। जगदुरु

भगवान्‌ विष्णुके अतिरिक्त मेय कोई बन्धु नहीं। मेरे नीचे-

ऊपर, दाहिने-बाँयें, मस्तक, हृदय, बाहुओं, नेतरौ तथा कानमे

मित्र-रूपमें भगवान्‌ विष्णु ही विराज रहे हैं'।'

इस प्रकार सब कुछ छोड़कर सर्वेश भगवान्‌ अच्युतको

हृदयमे धारण कर निरन्तर वासुदेवके नामका कीर्तन करता रहे

और जब मृत्यु अति समीप आ जाय, तब दक्षिणाग्र कुरा

बिछाकर पूर्व अथवा उत्तरकी ओर सिरकर शयन करे तथा

एव पहयतु मामीशः पश्याम्यहमथोक्षजम्‌।

इत्थं जपेदेकपनाः स्परन्‌ सर्वेश्वरं हरिम्‌ ॥

(उत्तरपर्व १२६ । १९--२५)

"भगवान्‌ विष्णु, जिष्णु, हषीकेदा, केशव, मधुसूदन,

नारायण, नर, शौरि, वासुदेव, जनार्दन, वाराह, यशपुरुष,

सर्वेश्वरेश्वर, रद्ध, अनन्त, विश्वरूपी, चक्री, गदी, झान्त,

खी, गरुडध्वज, किरीटकौस्तुभधर तथा अव्यय परमात्माको

मैं प्रणाम करता हूँ। जगन्नाथ ! मैं आपका ही हूँ, आप शीघ्र

मुझमें निवास करें। वायु एवं आकाइक् तरह मुझमें और

आपमें कोई अन्तर न रहे । मैं नीछे कमछके समान इयामवर्ण,

कमलनयन भगवान्‌ विष्णु अथवा शौरि अथवा भगवान्‌

श्रीकृष्ण आपको अपने सामने देख रहा हूँ, आप भी मुझे

देखें।'

इन मन्वरौको पढ़कर भगवान्‌ विष्णुकों प्रणाम करे ओर

उनका दर्जन करे तथा "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस

मन्त्रका निरन्तर जप करता रहे । जो व्यक्ति प्रसन्नमुख, शंख,

चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए, केयूर, कटक, कुण्डल,

श्रीवत्स, पीताम्थर आदिसे विभूषित, नवीन मेघके समान

इयामस्वरूप भगवान्‌ विष्णुका ध्यान कर प्राणका परित्याग

करता है, वह सभी पाफॉसे मुक्त हो भगवान्‌ अच्युतम लीन हो

जाता है।

राजा युधिष्ठिरे पुनः पूछा--भगवन्‌ ! अन्त

समयकी जो यह विधि आपने बतायी, वह स्वस्थचित्त रहनेपर

ही सम्भव है, परेतु अन्तसमयमे तरुण और नीरोगी पुरुषोकी

भी चित्तवृत्ति मोहग्रस्त हो जाती है, वृद्ध और रोगिर्योकौ तो

बात ही क्या है। अतिवृद्ध और रोगग्रस्त व्यक्तिके लिये

कुशाके आसनपर ध्यान करना तो असम्भव ही है। इसलिये

प्रभो ! दूसरा भी कोई सुगम उपाय बतानेका कष्ट करें, जिससे

साधन निष्फल न हौ ।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले- महारज ! यदि और कुछ

करना सम्भव न हो तो सबसे सरल उपाय यह है कि चारो

, तरफसे चित्तवृत्ति हटाकर गोविन्दका स्मरण करते हुए प्राणका

पदध्यों कराध्यों विहन्‌ कुर्वाणः कर्म चोइहन्‌।न पपै कस्यचित्याच्याः प्राणिनः सन्तु निर्भया: #

नभसि पणिनो ये च ये जले ये च भूतले। खितेबिंवरणा

धात्कादिषु च चल्मेषु रायनेष्वारानेषु

पार्तो मूर्ति इदये बाह्यो चैव

ये च ये च पाषाणसप्पुटे ॥

च।तै स्वयै तु चिबुध्यत्ते दत्ते तेध्योऽभयै मया#

न मेऽस्ति अन्धवः कशचिदरिष्णु मुक्त्वा जाइलम।फ्रिपक्षे च में

चक्षुषोः । शोत्दिषु च

विष्णुरषञ्चोध्व तथा पुनः ॥

सर्वेषु मम विष्णुः प्रतिष्ठितः ॥ (उ्रपर्व १२६ । ९--१

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