उत्तरपर्व ]
* भद्दाका चरित्र एवं उसके क्रतकी विधि «
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रनसहिते स्वर्णमय कमलके साध कलझॉको दान कर दे । इसी
प्रकार सोने, चाँदी अथवा ताँबैकी शोषनागसहित पृथ्वीकी
प्रतिमा बनवाकर दान करना चाहिये । जो ऐसा करनेमें असमर्थ
हों, वे आटेकी शोषसहित पृथ्वीकी प्रतिमा बनाकर स्वर्णनिर्मित
सूर्यके साथ दान कर सकता है। जबतक इस मृत्युल्लेक्मे
महेन्द्र आदि देवगणो, हिमालय आदि पर्वतौ और सातों
समुद्रोंसे युक्त पृथ्वीका अस्तित्व है, तबतक स्वर्गलोकमें
अखिल गन्धर्वसमूह उस व्रतीकी भततरीभांति पूजा करते हैं।
पुण्य क्षीण होनेपर वह सृष्टिके आदिमें उत्तम कुछ और शरसे
सम्पन्न होकर भूतलपर साते द्वीपोंका अधीर होता है। वह
सुन्दर रूप और सुन्दर पत्नीसे युक्त होता है, बहुत-से पुत्र और
भाई-बन्धु उसके चरणोंकी वन्दना करते हैं। इस प्रकार जो
मनुष्य सूर्य-संक्रान्तिकी इस पुण्यमयी अखिल विधिको
भक्तिपूर्वक पढ़ता या श्रवण करता है अथवा इसे करनेकी
सम्मति देता है, वह भी इन्द्रलोकमें देवताओंद्वारा पूजित
होता है। (अध्याय ११५-११६)
भद्राका चरित्र एवं उसके व्रतकी विधि
राजा युधिष्ठिरने पूछा-- भगवन् ! लोकम द्रा विष्टि
नामसे प्रसिद्ध है, यह कैसी है, कौन है, वह किसकी पुत्री है,
उसका पूजन किस विधिसे किया जाता है? कृपया आप
बतानेका कष्ट करें।
भगवान् श्रीकृष्ण ओले--महाराज ! भद्रा भगवान्
सूर्यनारायणकी कन्या है। यह भगवान् सूर्यकी पत्नी छायासे
उत्पन्न है और दानैश्वस्की सगौ बहिन है। वह काले वर्ण, लम्ये
केश, बड़े-बड़े दाँत और बहुत ही भयंकर रूपवाली है।
जन्मते ही वह संसारका ग्रास कलेके लिये दौडी, यज्ञे
विघ्र-बाधा पहुँचाने लगी ओर उत्सवो तथा मङ्गल -यात्र
आदिमे उपद्रव करने लगी और पुरे जगत्को पीड़ा पहुँचाने
लगी । उसके उच्छ्र स्वभावको देखकर भगवान् सूर्य
अत्यन्त चिन्तित हो उठे और उन्होंने शीघ्र ही उसका विवाह
करनेका विचार किया। जब जिस-जिस भी देवता, असुर,
किन्नर आदिसे सूर्यनारायणने विवाहक प्रस्ताव रखा, तब उस
भयंकर कन्यासे कोई भी विवाह करनेको तैयार न हुआ।
दुःखित हो सूर्यनारायणने अपनी कन्याके विवाहके लिये मण्डप
बनवाया, पर उसने मण्डप-तोरण आदि सबको उखाड़कर
फेंक दिया और सभी ल्मेगोंको कष्ट देने कमी । सूर्यनारायणने
सोचा कि इस दुष्टा, कुरूपा, स्वेच्छाचारिणी कन्याका विवाह
किसके साथ किया जाय । इसी समय प्रजाके दुःखको देखकर
ब्रह्माजीने भी सूर्यके पास आकर उनकी कन्याद्रारा किये गये
र्मुखे तु घटिकाः पञ्च द्रे कष्ठे तु सदा स्थितें।हृदि
दुष्क्मॉंको बतलाया। यह सुनकर सूर्यनारायणने कहा--
"ब्रह्मन् ! आप ही तो इस संसारके कर्ता तथा भर्ता हैं,
फिर आप मुझसे ऐसा क्यो कह रहे हैं। जो भी आप उचित
समझें वही करें । सूर्यनारायणका ऐसा बचन सुनकर ब्रह्माजीने
विष्टिको बुलाकर कहा--'भद्रे ! वव, बालव, कौलव आदि
करणोंके अन्तमे तुम निवास करो और जो व्यक्ति यात्रा, प्रवेश,
माङ्गल्य कृत्य, खेती, व्यापार, उद्योग आदि कार्य तुम्हारे
समयमे करे, उन्हींमें तुम विश्न करो । तीन दिनतक किसी
प्रकारकी बाधा न डालो । चौथे दिनके आघे भागमें देवता और
असुर तुम्हारी पूजा करेंगे। जो तुम्हारा आदर न करें उनका
कार्य तुम ध्वस्त कर देना ।' इस प्रकार विष्टिको उपदेशा देकर
ब्रह्माजी अपने धामको चले गये, इधर विष्टि भी देवता, दैत्य,
मनुष्य सब प्राणियोंको कष्ट देती हुई घूमने लगी । महाराज !
इस तरहसे भद्राकी उत्पत्ति हुई और वह अति दुष्ट प्रकृतिकी
है, इसलिये माङ्गलिक कार्योंमें उसका अवश्य त्याग करना
चाहिये ।
भद्रा पाँच घड़ी मुखमे, दो घड़ी कष्टम, ग्यारह घड़ी
इृदयमें, चार घड़ी नाभिमें, पाँच घड़ी कटिमें और तीन घड़ी
पुच्छमें स्थित रहती है। जब भद्रा मुखमे रहती है तब कार्यको
नाश होता है, कण्ठमें घनका नाश, हृदयमें प्राणका नाश,
नाधिमें कलह, कटिमें अर्थभंश होता है पर पुच्छमें
निश्चितरूपसे विजय एवं क्यर्य-सिद्धि हो जाती है'।
चैकादपा. प्रोत्ताझतस्रो... अभिमष्ले ॥
क्यो. पश्ैन.. विज्ञेयास्तिल: पुच्छे जयावहाः । मुखो कर्विन््राय प्ीवायौ चघननापिी ॥