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च पुराण परप॑ पुण्ये भविष्यं सर्वसौख्यदम् ४
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
चलना और सदा उसका हित चाहते रहना। अर्थात् पतिके
चित्तके अनुकूल चलना और यथोचित व्यवहार करना, यह
पतित्रताका मुख्य धर्म है--
आराध्यानाौ हि सर्वेधामयमाराधने विधिः।
चि्तज्ञानानुवृत्तिश्च हितैषित्वे च सर्वदा ॥
(पर्व १०। १)
पतिके माता-पिता, बहिन, ज्येष्ठ भाई, चाचा, आचार्य,
यामा तथा वृद्ध खियों आदिका उसे आदर करना चाहिये और
जो सम्बन्धमें अपनेसे छोटे हों, उनको जेहपूर्वक आज्ञा देनी
चाहिये । जहाँ भी अपनेसे बड़े सास-ससुर या गुरु विद्यमान
हों या अपना पति उपस्थित हो यहाँ उनके अनुकूल ही
आचरण करना चाहिये; क्योंकि यही चरित्र लियोकि लिये
परदास्त माना गया है। हास-परिहास करनेवाले पतिके मित्र
और देवर आदिके साथ भी एकान्तमें बैठकर हास-परिहास
नहीं करना चाहिये। किसी पुरुषके साथ एकान्तमें बैठना,
स्वच्छन्दता और अत्यधिक हास-परिहास करना प्रायः कुलीन
खियोके पातित्रत-धर्मको नष्ट करनेके कारण बनते हैं। सहसा
दुष्टके संसर्गमे आकर युवकंकि साथ हास-परिहास करना
उचित नहीं होता, क्योंकि स्वतन्त्र स्रियोंकी निर्भीकता एकान्तमे
बुरे आचरणके लिये सफल हो जाती है। अतः उत्तम खीकों
ऐसा नहों करना चाहिये। इस रीतिसे ल्लौका शौल नहीं
बिगड़ता और कुलको निन्दा भी नहीं होती। बुरे संकेत
करनेवाले और गुर घावोक प्रकट करनेवाले पुस्षोकों भाई या
पिताके समान देखते हुए स्त्रीको चाहिये कि उनका सर्वथा
परित्याग कर दे । दुष्ट पुरुषोंका अनुचित आग्रह स्वीकार करना,
उनके साथ वार्तात्थ्रप करना, हासयुक्त संकेत अथवा कुदृष्टिपर
ध्यान देना, दूसरे पुरुक हाथसे कुछ लेना या उसे देना सर्वधा
परित्याज्य है। घरके द्वारपर बैठने या खड़ा होने, राजमार्गकी
ओर देखने, किसी अपरिचित देश या घरमें जाने, उद्यान और
प्रदर्शनी आदियें रुचि रखनेसे स्त्रौको बचना चाहिये। बहुत
पुरुषोंके मध्यसे निकलना, ऊँचे स्वरसे बोलना, हँसी-मजाक
करना एवं अपनी दृष्टि, याणी तथा शारीरसे चापल्य प्रकट
करना, खैखारना तथा सीत्कारी भरना, दुष्ट ख्री, भिक्षुकी,
तान्त्रिक, मान्क्रिक आदिमे आसक्ति और उनके मण्डलॉमें
निवास करनेकी इच्छा--ये सब बातें पतिश्रता स्गीके लिये
त्याज्य हैं। इस प्रकास्के आचरण तो प्रायः दुष्टोंक लिये ही
उचित होते है, कुलीन र्क्योंके लिये नहीं। इन निन्दनीय
बातोंसे अपनी रक्षा करते हुए स्बियोंको चाहिये कि ये अपने
पातिव्रत-घर्म तथा कृकी मर्यादाक रक्षा करें।
उत्तम ख्री पतिको मन, वचन तथा कर्मसे देकताके समान
समझे ओर उसकी अर्धाड्रिनी बनकर सदा उसके हित करनेमें
तत्पर रहे । देवता और पितरोंके कृत्य तथा पतिके सान, भोजन
एवं अभ्यागतोंके स्वागत-सत्कार आदिमे बड़ी ही सावधानी
ओर समयका ध्यान रखे । वह पतिके मित्रोंको मित्र तथा
झत्रुओंको झत्रुके समान समझे। अधर्म और अनर्थसे दूर
रहकर पतिकों भी उससे बचाये। पतिको क्या प्रिय है और
कौन-सा भोजनादि पदार्थ उसके त्क्यि हितकर है तथा कैसे
पतिके साथ विचारो आदिमें समानता आये इस यातको सर्वदा
उसे ध्यानमें रखना चाहिये, साथ ही उसे सेक््कॉको असंतुष्ट
नहीं रखना चाहिये।
रहनेका घर और झरीर--ये दो गृहिणियोंके लिये मुख्य
हैं। इसलिये प्रयननपर्वक यह सर्वप्रथम अपने घर तथा
आरीरको सुसंस्कृत (पवित्र) रखे। शरीरसे भी अधिक स्वच्छ
और भूषित घरको रखे । तीनो काल्मॉमें पूजा-अर्चना करें और
व्यवहारकी सभी वस्तु ओको यथाविधि साफ रखे। प्रातः,
मध्याह्न और सायकाल्के समय घरका मार्जनकर स्वच्छ करे ¦
गोशाल्म आदिको स्वच्छ करवा ले। दास-दासियोको भोजन
आदिसे संतुष्ट कर उन्हें अपने-अपने कार्योमि लगाये । स््नीको
उचित है कि वह प्रयोगमें आनेवाले शाक, कन्द, मूल, फल
आदिके यीजोंका अपने-अपने सपयपर संग्रह कर ले और
समयपर इन्हें खेत आदि बुआ दे । तधि, कासे, स्मेहे, काष्ठ
और मिट्टीसे बने हुए अनेक प्रकारके बर्तनॉका धरये संग्रह
रखे। जल रखने तथा जल निकालने और जल पौनिके
ऋलदादि पाप्र, दाक-भाजों आदिसे सम्बद्ध विभिन्न पात्र, घो,
तेल, दूध, दही आदिसे सम्बद्ध बर्तन, मूसल, ओखली,
झाड़ , चलनी, सैंडसी, सिल, ल्त्रेढ़ा, चक्की, चिमटा, कडाही,
तवा, तगजू , बाट, पिटार, संदुक, पलेंग तथा चौकी आदि
गृहस्थीके प्रयोगमें आनेवाले आवश्यक उपकरणोंकी
प्रयत्रपूर्वक व्यवस्था करनी चाहिये । उसे चाहिये कि वह हींग,
जीरा, पिप्पल, राई, मरिच, धनियो तथा सॉँठ आदि अनेक