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* पुराण परमं पुण्य भविष्य॑ सर्वसौख्यदम्‌ «

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू

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मास-नक्षत्र-व्रतके माहात्म्यमें साम्भरायणीकी कथा

राजा युधिष्ठिरने कहा--प्रभो ! ऐश्वर्य आदिके प्राप्त न

होनेसे इतना कष्ट नहीं होता, जितना प्राप्न होकर नष्ट हो जानेसे

होता है। इसलिये आप ऐसा कोई त्रत बताये, जिसके करनेसे

ऐश्वर्य-भ्रैज्ञ और इष्ट-वियोग न हो।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! यह बड़ा भारी

दुःख है कि प्राप्त हुए सुखका फिर नादा हो जाता है। इसके

लिये श्रेष्ठ पुरषोंको चाहिये कि ये बारह मासोकि बारह नक्षत्रोमें

भगवान्‌ अच्युतकी विविध उपचारोंसे पूजा करें। इस

नक्षत्र-त्रतको प्रथम कार्तिक मासकी कृत्तिकामे करना चाहिये ।

इसी प्रकार मार्गङीर्षं मासके मृगदिरा नक्षत्रमें, पौष मासके

पुष्य नक्षत्रम तथा माघ मासके मघा नक्षत्रमें करना चाहिये।

कार्तिक, मार्गदीर्ष, पौष तथा माघ--इन चार महीनोमे

खिचड़ीका भोग लगाये और यही ब्राह्मणको भोजन भी

कराये। फाल्गुन आदि चार महीनोंके नक्षत्रोमें संयाव

(गोक्षिया) का नैवेद्य लगाये और आषाढ़ आदि चार महीनोंके

नक्षत्रोंें पायसका नैकेद्य लगाये। पञ्चगव्यका प्रदान करे और

भक्तिसे नारायणका अर्चन कर इस प्रकार प्रार्थना कोें--

नमो नमस्तेऽच्युत मे क्षयोऽस्तु पापस्य वृद्धिं समुपैतु पुण्यम्‌ ।

ऐश्वर्यवित्तादि तथाऽक्षयं मे क्षयं च पा संततिरभ्युपैतु ॥

यथाच्युतस्त्वे परत: परस्मात्‌ स ब्रह्मभूतः परतः परात्मा !

लथाच्युतं मे कुरुं याच्छितं त्वं हरस्व पापं च तथाप्रमेय ॥

अच्युतानन्त गोविन्द प्रसीद यदभीप्ितम्‌ ।

तदश्चयममेयात्पन्‌ कुरुष्व पुरुषोत्तम ॥

(उत्तरफर्थ १०७॥ १२--१४)

"अच्युत ! आपको बार-बार नमस्कार है । मेरे पापोंका

नाद हो जाय, पुण्यकी वृद्धि हो, मेरे ऐश्वर्य, वित्त आदि

अक्षय हों तथा मेरी संतति कभी नष्ट न हो। जिस प्रकारसे

आप परसे परे ब्रह्मभूत और उससे भी परे अच्युत परमात्मा हैं,

उसी प्रकार आप मुझे अच्युत कर दें। अप्रमेय ! आप मेरे

पापोंको नष्ट कर दें। पुरुषोत्तम ! अच्युत, अनन्त, गोविन्द

अमेयात्मन्‌ ! मेरी समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करें, मेरे ऊपर

आप प्रसन्न हों।'

अनन्तर रात्रिके समय भगवानका प्रसाद ग्रहण करे। वर्ष

पूरा होनेपर जब भगवान्‌ अच्युत जग जायै, तब घृतपूर्ण

ताम्रपात्र ओर दक्षिणा ब्राह्मणको देकर "अच्युतः प्रीयताम' यह

वाक्य कहे । इस प्रकार सात वर्षतक नक्षत्रत्रत करके सुवर्णकी

अच्युतकी प्रतिमा बनवाकर स्थापित करे और उसके सामने

भगवान्‌की परम भक्ता और पतिग्रता साम्भरायणी ब्राह्मणीकी

चाँदीकी मूर्ति बनाकर स्थापित करे। फिर उन दोनोंकी गन्ध-

पुष्पादि उपचारोंसे पूआाकर क्षमा-प्रार्थना करे और सब सामग्री

ब्राह्मणको दान कर दे। इस विधिसे जो श्रद्धापूर्वकत ब्रत करता

है और भगवान्‌ अच्युतका पूजन करता है, उसके धन, संतति,

ऐश्वर्य आदिका कभी क्षय नहीं होता। उसकी समस्त

अभिलमषाएँ, पूर्ण हो जाती हैं। अतः मनुष्यको चाहिये कि

सर्वधा अक्षय होनेके लिये इस मास-नक्षत्र-ब्रतका पालन

करे।

युधिष्ठिरने पूछा--भगवन्‌ ! आपने साम्भरायणीकी

प्रतिमा बनाकर पूजन करनेको कहा है, ये साम्भरायणी देवी

कौन हैं ? आप इसे बतलायें।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोछे--महाराज ! ऐसा सुना जाता

है कि स्वर्गमें सान्भरायणी नामकी एक तपोधना कठिन ब्रतोंका

आचरण केवाली प्रख्यात सिद्धा नारी थी, जो देवताओंकी

भी शंकाओंका समाधान कर देती थी। एक समय देवराज

इन्द्रने देवगुरु बृहस्पतिसे पूछा--'भगवन्‌ ! हमारे पहले

जितने इन्द्र हो गये हैं, उनका क्या आचरण और चस्ति था,

आप कृपाकर इसका वर्णन कीजिये।'

देवगुरु बृहस्पति बोले--'देवेद्र सव इस्द्रोंका

युत्तान्त तो मुझे नहीं मालूम, केवल अपने समयमे हुए इन्द्रोंके

विषयमें मुझे जानकारी है।' इन्द्रने कहा--'गुगे आपके

बिना हम यह वृत्तान्त किससे पूछें।' बृहस्पति कुछ कार

वियारकर कहने लगे-- "पुरन्दर ! इस विषयको तपस्विनी

धर्मज्ञा साम्भरायणी देवीसे ही पूछो ।' यह सुनकर बृहस्पतिको

साथ लेकर देवराज इन्द्र साम्भरायणीके पास गये।

साम्भरायणीने बड़े सत्कारसे उनको बैठाया और अर्ध्यादिसे

पूजन कर बिनयपूर्वक आगमनका प्रयोजन पूछा। इसपर

यृहस्पतिजी बले-- ` साम्भरायणि ! देवराज इन्द्रकों प्राचीन

वृत्तान्त सुननेका बड़ा कौतूहल है । यदि आप विगत इन्द्रोंका

चरित्र जानती हों तो उसे बतायें।'

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