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३७० * पुराणं परम॑ पुण्य भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ «

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

विश्वास हो गया और उन्होंने भरतको अपने अङ्के ले लिया संक्षेपर्में कहा है। इन तीनों तिथियोंकों जल, अन्न, वस्र,

तथा अनेक प्रकारसे आश्वस्त किया। महाराज ! इन तीनों स्वर्णपात्र, छत्र आदि दान करनेवाले पुरुष इन्द्रलोके प्राप्त

तिथियोंका सम्पूर्ण माहात्य कौन वर्णन कर सकता है। मैंने करते हैं। (अध्याय १००)

न्ध

युगादि तिधिर्योकी विधि

राजा युधिष्ठिरे पुष्ठा-- भगवन्‌ ! आप उन

तिथियोंका वर्णन करें, जिनमें स्वल्प भी किया गया स्नान, दान,

जप आदि पुण्यकर्म अक्षय हो जाते हैं और महान्‌ धर्म तथा

शुभ फल प्राप्त होता है।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ओले--महाराज ! मैं आपको

अत्यन्त रहस्यकी बात बताता हूँ, जिसे आजतक मैंने किसीसे

नहीं कहा था। वैशाख मासके शु पक्षकी तृतीया, कार्तिक

मासके शङ्क पक्की नवमी, भाद्रपद मासके कृष्ण पक्षकी

त्रयोदशी और माघकी पूर्णिमा--ये चारों युगादि तिथियाँ हैं।

अर्थात्‌ इन तिथियोंमें क्रमशः सत्य, तेत, द्वापर तथा

कलि--चारों युगोंका प्रारम्भ हुआ है। इन तिथियोंको

उपवास, तप, दान, जप, होम आदि करनेसे कोटि गुना पुण्य

प्राप्त होता है। वैशाख शक तृतीयाको गन्ध, पुष्प, धूप, दीप,

नैवेद्य, वख्यभूषणादिसे लक्ष्मीसहित नारायणका पूजन कर

सवत्सा रूवण-धेनुका दान करना चाहिये। कार्तिक मासके

शुक पक्षकी नवमीकों नदी, तड़ाग आदिमे स्नान कर पुष्प,

धूप, नैवेद्य आदि उपचारोंसे उमाके साथ नीलकण्ठ भगवान्‌

दौकरक पूजा कर तिल-घेनुका दान करना चाहिये। भाद्रपद

कृष्ण त्रयोदज्ञीको पितृ-तर्पण कर शहद और घृतयुक्त अनेक

प्रकारके पक्रान्नोंसे ब्राह्मण-घोजन कराये तथा दूघ देनेवाली

सुन्दर सुपुष्ट सवत्सा प्रत्यक्ष गौ ब्राह्मणोंक्रों दान करना चाहिये।

माघ-पूर्णिमाको गायत्रीसहित ब्रह्माजी पूजन कर सुवर्ण,

वस्त्र अनेक प्रकारके फल्लेंसहित नवनीत-घेनुका दान करना

चाहिये।

राजन्‌ ! इस प्रकार दान करलेबाल्मेंकों तोनों लोकोंमें

किसी वस्तुका अभाव नहीं होता। इन युगादि तिथियोंमें जो

दान दिया जाता है वह अक्षय होता है। निर्धन हो तो

थोड़ा-थोड़ा ही दान करे, उसका भी अनन्त पुष्य प्राप्त होता

है। वित्तके अनुसार शय्या, आसन, छतरी, जूता, वस, सुवर्ण,

भोजन आदि ब्राह्मणोंको देना चाहिये। इन तिथियोंमें यथाराक्ति

ब्राह्णॉँकों भोजन भी कराये। अनन्तर प्रसन्न-मनसे

बन्धु-बान्धवेकि साथ मौन हो स्वयं भी भोजन करे। युगादि

तिथियोंमें दान-पूजन आदि करनेसे कायिक, वाचिक और

मानसिकं सभी प्रकारके पाप नष्ट हो जाते हैं और दाता अक्षय

स्वर्ग प्राप्त करता है।

(अध्याय १०१)

सावित्री-त्रतकथा एवं व्रत-विधि

राजा युखिष्धिरने कहा-- भगवन्‌ } अब आप

सावित्री-्रतके विधानका वर्णन करे ।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! सावित्री नामकी

एक राजकन्याने वनमे जिस प्रकार यह त्रत किया धा, खियोके

कल्याणार्थ मैं उस ब्रतका वर्णन कर रहा हूँ, उसे आप सुने ।

प्राचीन काले मद्रदेश (पैजाब)म एक बड़ा पराक्रमी,

सत्यवादी, क्षमाशील, जितेन्धिय और प्रजापालने तत्पर

अश्वपति नामका राजा राज्य करता था, उसे कोई संतान न धी ।

इसलिये उसने सपत्नीक व्रतद्वारा सावित्रीकी आराधना की।

कुछ कालके अनन्तर ब्रतके प्रभावसे ऋह्माजीकमै पत्नी

सावित्ीन प्रसन्न हो राजाकों वर दिया कि "राजन्‌ ! तुम्हें (मेरे

ही अंशसे) एक कन्या उत्पन्न होगी ।' इतना कहकर सावित्री

देवी अन्तर्धान हो गयीं और कुछ दिन बाद राजाकों एक दिव्य

कन्या उत्पन्न हुई। वह सावित्रीदेवीके वरसे प्राप्त हुई थी,

इसछिये राजाने उसका नाम सावित्री ही रखा। धीरे-धीरे वह

विवाहके योग्य हो गयी। सावित्रीने भी भृगुके उपदेशसे

सावित्री-व्रत किया।

एक दिन कह ब्रतके अनन्तर अपने पिताके पास गयी

और प्रणाम कर वहाँ बैठ गयी । पिताने सावित्रीको विवाहयोग्य

जानकर अमात्योंसे उसके चिवाहके विषयमे मन्त्रणा की; पर

उसके योग्य किसी श्रेष्ठ चरको न देखकर पिता अश्वपतिने

सावित्रीसे कहा--पुत्रि तुम वृद्धजनो तथा अमात्योकि साथ

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