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* वैशाखी, कार्तिकी और माधी पूर्णिमाकी विधि *

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आदि उपचारोंसे चन्द्रमाका पूजन कर उनसे क्षमा-प्रार्थना करे

और सायंकाल इस मन्त्रसे चन्द्रमाकों अर्व प्रदान करें--

वसनन्‍्तबान्धव विभो शीतांझों स्वस्ति नः कुरू।

गगनार्णवमाणिक्य चन्द्र॒ दाश्चायणीपते ॥

(उत्तरपर्व ९९ । ५४)

अनन्तर गत्रिमे मौन होकर शाक एवं तित्रीके चावरका

भोजन करे । प्रत्येक मासकी पौर्णमासीकये इसी प्रकार

उपवासपूर्वक चददरमाकी पूजा करनी चाहिये । यदि कृष्ण

पक्षकी अमावास्यामे कोई श्रद्धावान्‌ व्यक्ति चनद्रमाकी पूजा

करना चाहे तो उसके लिये भी यही विधि बतलायी गयी है।

इससे सभी अभीष्ट सुख प्राप्त होते हैं। अमावास्या तिथि

पितरोंको अत्यन्त प्रिय है। इस दिन दान एवं तर्पण आदि

करनेसे पितरोंको तृप्ति प्राप्त होती है। जो अमावास्पाकों उपवास

करता है, उसे अक्षय-वटके नीचे श्राद्ध करनेका फल प्राप्त

होता है। यह अक्षय-वट पितरोंके लिये उत्तम तीर्थ है। जो

अमावास्थाको अक्षय-बटमें पितरोकि उद्देब्यसे श्राद्धादि क्रिया

करता है, वह पुण्यात्मा अपने इक्कीस कुलॉंका उद्धार कर देता

है। इस प्रकार एक वर्षपर्यन्त पूर्णिमा-त्रत करके नक्षत्रसहित

चन्द्रमाकी सुवर्णकी प्रतिमा बना करके वस््ाभूषण आदिसे

उसका पूजन कर ब्राह्मणको दान कर दे । व्रती यदि इस ब्रतको

निरन्तर न कर सके तो एक पक्षके ब्रतकों ही करके उद्यापन

कर छे। पार्थ ! पौर्णमासी त्रत करनेवाल्त्र व्यक्ति सभी पापोते

मुक्त हो चनद्रमकी तरह सुशोभित होता है और पुत्र-पौत्र, घन,

आरोग्य आदि प्राप्तकर बहुत कारुतक सुख भोग कर अन्त-

समयमे प्रयागमें प्राण त्वागकर विष्णुरोकको जाता दै । जो

पुरुष पूर्णिमाको चनद्रमाका पूजन और अमावास्याको

पितृ-तर्पण, पिष्डदान आदि करते है, वे कभी धन-धान्य-

संतान आदिसे च्युत नहीं होते । (अध्याय ९९)

--< ष

वैशाखी, कार्तिकी ओर माधी पूर्णिमाकी विधि

राजा युधिष्ठिरे पृष्ठा -- भगवन्‌ ! संवत्सरमें करन

कौन तिथियाँ खान-दान आदिमे अधिक पुण्यप्रद है । उनका

आप वर्णन करे ।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! वैज्ञाख, कार्तिक

और माघ--इन तीन महीनोंकी पूर्णिमाएँ खान-दान आदिके

लिये अति श्रेष्ठ हैं। इन तिथियोंमें स्नान, दान आदि अवश्य

करते चाहिये। इन तिथिर्योमि सीमि खान करे और यधाशक्ति

दान दे। वैज्ाखोको उज्जयिनी (दिप्रा) में, कार्तिकीको

पुष्करमें और माघीकों वागणसी (गङ्गाम खान करना

चाहिये। इस दिन जो पितरोंका तर्पण करता है, वह अनन्त

फल पाता है और पितरोंका उद्धार करता है।

वैशाख-पूर्णिमाको अन्न, सुवर्ण और वख्बसहित जलपूर्ण

कलश ब्राह्मणको दान करनेसे ब्रती सर्वथा शोकमुक्त हो जाता

है। इस व्रते सुन्दर मधुर भोजनसे परिपूर्ण पात्र, गौ, भूमि,

वर्णं तथा वस्त्र आदिका दान करना चाहिये। माघ-पूर्णिमाको

देवता और पितरोंका तर्पण कर सुवर्णसहित तिलपात्र, कम्बल,

रुके चसन, कपास, रतन आदि ब्राह्मणोंको दे।

कार्तिक-पूर्णिमाको वृषोत्सर्ग करे । भगवान्‌ विष्णुका नीराजन

करे । हाथी, घोड़े, रथ और घृत-धेनु आदि दस घेनुओंका दान

करे और केलः, खजूर, नारियल, अनार, संतरा, ककड़ी,

बैगन, करेला, कुंदुढ, कृष्माष्ड आदि फलॉका दान करे । इन

पुण्य तिथियोंमें जो खान, दान आदि नहीं करते, वे जन्मान्तरे

रोगी और दर होते हैं। ब्राहमणोको दान देनेका तो फल है

ही, परंतु बहन, भानजे, युआ आदिको तथा दरिद्र बखुओंको

भी दान देनेसे बड़ा पुण्य होता है। मित्र, कुलीन व्यक्ति,

विपत्तिसे पीड़ित व्यक्ति, दरिद्री और आशासे आये अतिथिको

दान देनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है। राजन्‌! सीता और

लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्र जब वन चले गये थे, उस समय

भरतजी अपने ननिहालमें थे । इधर लोगोंने माता कौसल्याको

उनके विषयमे सदोकित कर दिया कि श्रीरामके वनगमनमें

भरत ही मुख्य हेतु है । फिर जब वे ननिहालसे वापस आये

और उन्हें सारी बातें ज्ञात हुईं तो उन्होने माताको अनेक

प्रकारसे समझाया और शपथ भी ली, पर माताको विश्वास न

हुआ, कितु जब भरतने कहा कि "मां ! भगवान्‌ श्रीरामके

वन-गमनमें यदि मेरी सम्मति रही हो तो देवताओंद्वारा पूजित

तथा अनेक पुण्योंको प्रदान करनेवाली वैज्ञाख, कार्तिक तथा

माघकी पूर्णिमाएँ मेरे बिना स्नान-दानके ही व्यतीत हों और

मुझे निम्न गति प्राप्त हो ।' इस महान्‌ दपथको सुनते ही माताको

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