* नक्तं एवं शिवचतुर्दशी-ब्रतकी विधि «
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नक्त एवं शिवचतुर्दशी-ब्रतकी विधि
भगवान् श्रीकृष्ण योखे-- महाराज ! अब आप
नक्ततवरत्का विधान सुनिये, जिसके करनेसे मनुष्य मुक्ति प्राप्त
कर लेता है । किसी भी मासकी शुक चतुर्दशीको ब्राह्मणको
भोजन कराकर नक्त्रत प्रारम्भ करना चाहिये । प्रत्येक मासमें
दो अष्टमियाँ और दो चतुर्दशियाँ होती है । उस दिन भक्तिपूर्वकं
झिवजीका पूजन करें और उनके ध्यानमें तत्पर रहे। रात्रिके
समय पृथ्वीको पात्र बनाकर उसीमें भोजन करे'। उपवाससे
उत्तम भिक्षा, भिक्षासे उत्तम अयाचित-ग्रत और अयाचित-
ब्रतसे भी उत्तम है नक्त-भोजन। इसलिये नक्तवत करना
चाहिये । पूर्वाइमें देवता, मध्याह्ममें मुनिगण, अपगमे पितर
और सायंकालमें गुहाक आदि भोजन करते हैं। इसलिये
सबके बाद नक्त-भोजन करना चाहिये। नक्तवत करनेवाल्त्
पुरुष नित्य स्नान, स्वल्प हविष्यात्र-भोजन, सत्य-भाषण,
नित्य-हवन और भूमिशयन करे। इस प्रकार एक वर्चतक व्रत
करके अन्तमें घृतपूर्ण कलदाे ऊपर भगवान् शिवकी
मृत्तिकासे बनी प्रतिमा स्थापित करे । कपिल गौके पञ्चगव्यसे
प्रतिमाको स्नान कराकर फल, पुष्प, यव, भ ,
तिल तथा चावल जलें छोड़कर अष्टाङ्ग - अर्य प्रदान करे ।
दोनों घुटनोंको पृथ्वीपर रखकर पात्रको सिरतक उठाकर
महादेवजीको अर्ध्य दे। अनन्तर अनेक प्रकारके भक्ष्य-भोज्य
नैवेद्य निवेदित करे । एक उत्तम सवत्सा गौ और वृषभ वेदवेत्ता
ब्राह्मणको दक्षिणासहित दे । इस ब्रतकों करनेयाला व्यक्ति
दिव्य देह धारण कर उत्तम बिमानमें बैठकर रुद्रतेकमें जाता
है। वहाँ तीन सौ कोटि वर्षपर्यन्त सुख भोगकर इस लोकें
महान् राजा होता है। एक बार भी जो इस विधानसे नक्तत्रत
कर श्रीसदादिवका पूजन करता है, वह स्वर्गल्ेकको प्राप्त
करता है।
भ्रगवान् श्रीकृष्णने पुन: कहा--महाराज ! अब मैं
तीनों ल्मेकोमें प्रसिद्ध शिवचतुर्दशीकी विधि बता रहा हूँ। यह
माहेश्वत्ग़त शिवचतुर्दशी नामसे प्रसिद्ध है'। इस ब्रते
मार्गशीर्ष मासके शुक्र पक्षकी त्रयोदशीको एक बार भोजन करे
और चतुर्दशीको नियहार रहकर पार्वतीसहित भगवान् दौकरकी
गन्ध, पुष्प, धूप, दीपः आदि उपचारोंसे पूजा करे। स्वर्णका
वृषभ बनाकर उसकी भी पूजा करे। अनन्तर वह वृषभ तथा
स्थापित जलपूर्ण कलदा ब्राह्मणको प्रदान कर दे, विविध
प्रकारके भक्ष्य पदार्थ भी दे और कहे--'प्रीयतां देवदेवोउज
सद्योजात: पिनाकधृक् ।' अनन्तर उत्तराभिमुख हो घृतका
ब्राइन कर भूमिपर शयन करे। प्रतिमासकी शकं चतुर्दशीको
यही विधान करे और मार्गशीर्ष आदि महीनोंमें शायनके समय
इस प्रकार प्रार्थना करे--
कराय नमस्तुभ्यं नमस्ते करवीरक ।
श्यष्बकाय नमस्तुभ्यं महेश्वरमतः परम् ॥
नमस्तेऽस्तु महादेव स्थाणवे च ततः परम् ।
नमः पशुपते नाथ नमस्ते झम्भवे नमः ॥
नपस्ते परमानन्द नमः सोमार्धधारिणे ।
नमो भीमाय चोप्राय त्वामहं शरण गतः ॥
{उच्तपर्व ९७ । १५-- १७)
बारह महीनोंमें क्रमसे गोमूत्र, गोमय, दुग्ध, दधि, घृत,
कुशोदक, पञ्चगव्य, बिल्व, यवागू (यवकी काँजी), कमल
तथा काले तिलका प्रान करे ओर मन्दार, मालती, धतूर,
सिंदुवार, अज्ञोक, मल्लिका, कुब्जक, पाटल, अर्क -पुष्प,
कदम्ब, रक्त एवं नीलकमल तथा कनेर--इन बारह पुष्पोंसे
क्रमशः बारहो चतुर्दशियोंमें उमामहेश्वरका पूजन करे । अनेक
ब्राह्मणोंको संतुष्ट कर नीले (कृष्ण) रँगका वृष छोड़े और एक
गौ तथा एक वृष सुकर्णका बना करके आठ मोतियोंसे युक्त
उत्तम शय्यापर स्थापित करे । जल-कुम्म, शालि-चावल, घृत,
दक्षिणासहित सब सामग्री वेद-ब्रत-परायण, शान्तचित्त
सपत्नीक ऋणो प्रदान कर दे। इस ब्रठकों जो पुरुष
भक्तिपूर्वक करता है, उसके माता-पिताके भी सभी पाप नष्ट
१-गया आदि तीथॉमें पृथ्वौपर ही भोजनपात्रके रूपमे धियां बनी हुई हैं। पहले जैन, बौद्ध, भिक्षु, सन्यासी उन्हीमे या मिट्टीकी बनी थालियोंमें
रेजे करते थे और कुछ त्तरेण हाथमें लेकर भोजन करते ये । उच्हें करपात्री कहते थे। इसमें त्याग, व्रत, पर्या और सहिष्णुता सब मिश्रित थी।
२- इस वतक वर्णन म्य आदि पुतणोंमें भी प्राप्त होता है।