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के पुराणै परमै पुण्यं भविष्यं स्वंसौख्यदम् #
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
अश्रवणिकाब्रत-कथा एवं ब्रत-विधि
राजा युधिष्ठिरने पूछा--भगवन् ! संसारमें श्रावणी
नामकी जिन देवियोंका नाम सुना जाता है, वे कौन हैं और
उनका क्या धर्म है तथा वे क्या करती हैं? इसे आप
बतस्मनेकी कृपा करें।
भगवान् भ्रीकृष्णने कहा--पाण्डवश्रेष्ठ ! ब्रह्माने इन
श्रावणी देवियोंकी रचना की है। संसारमें मानव जो कुछ भी
शुभ अथवा अशुभ कर्म करता है, वे श्रावणी देवियाँ उस
विषयकी सूचना शीघ्र ही ब्रह्माको श्रवण कराती हैं, इसीलिये
ये श्रावणी कही गयी हैं' । संसारके प्राणियोंका नियमन करनेके
कारण ये पूज्य हैं। ये दूरसे ही जान-सुन-देख लेती हैं। कोई
भी ऐसा कर्म नहीं है जो इनसे अदृश्य हो। इनमें ऐसी
विलक्षण शक्ति है जो तर्क, हेतु आदिसे अगम्य है। जिस
एवं पुण्यप्रद हैं, उसी प्रकार ये श्रावणी देवियाँ भी वन्दनीय एवं
पुण्यमयी हैं। स्त्री-पुरुषोंको इनकी प्रसन्नताके लिये त्रत करना
चाहिये तथा जल, चन्दन, पुष्प, धूप, पक्रान्न आदिसे इनकी
पूजा करनी चाहिये और लियो तथा पुरुषोको भोजन कराकर
ब्तकी पारणा करनी चाहिये।
इनका व्रत न केसे मृत्यु-कष्ट होता है और यम-यातना
सहन करनी पड़ती है। रुजन् ! इस विषयमे आपको एक
आख्यान सुनाता हूँ--
प्राचीन कालम नहुष नामके एक राजा थे ¡ उनकी रानीका
नाम “जयश्री धा । बह अत्यन्त सुन्दर, शीलवती एवं पतिव्रता
थी। एक बार गङ्गाम स्नान करके वह महर्षि वसिष्ठके
समीपवर्ती आश्रमम गयी, वहाँ उसने देखा कि माता अरुन्धती
मुनिषक्रियोौको विविध प्रकारका भोजन करा रही है । जयश्रीने
उन्हें प्रणाम कर पूछा--'भगवति ! आप यह कौन-सा व्रत
कर रही हैं।' अरुन्धती बोलीं--'देवि ! मैं श्रवणिकात्रत कर
रही हूँ। इस व्रतको मुझे महर्षि वसिष्ठने बताया है। यह त्रत
अत्यन्त गुप्त और ब्रह्मर्षियोंका सर्वस्व है तथा कन्याओंकि लिये
श्रेष्ठ एवं उत्तम पति प्रदान करनेवाल्म्र है। तुम यहाँ ठहरो, मैं
तुम्हारा आतिथ्य करगौ !' और उन्होंने वैसा ही किया।
तदनन्तर जयश्री अपने नगरम चली आयी । कुछ समय बाद
वह उस ब्रतको तथा अरुन्धतीके भोजनकों भूल गयी । समय
आनेपर जब वह महासती मरणासन्न हुई तो उसके गलेमें
घर्घणहट होने लगी, कष्ठ अवरुद्ध हो गया, मुखसे फेन एवं
त्र टपकने लगा। इस प्रकार दारुण कष्ट भोगते हुए उसे
पंद्रह दिन व्यतीत हो गये। उसका मुख देखनेसे भय लगता
था। सोलहवें दिन अरुन्धती जयश्रीके घर आयी और उन्होंने
वैसी कष्टप्रद स्थितिमें उसे देखा । तब अरुन्धतीने राजा नहुषसे
श्रवणिकाश्नतके विषयमे बतत्नया । राजा नहुषने भी देवी
अरन्धतीके निर्देशानुसार जयश्रीके निमित्त तत्काल श्रवणिका-
ब्रतका आयोजन किया। उस ब्रतके प्रभावसे जयश्रीने सुख-
पूर्वक मृत्युका वरण किया और इन्द्रत्म्रेकको प्राप्त किया।
श्रीकृच्णने पुनः कहा--राजन्! मार्गशैर्षसे
कार्तिकतक द्वादशा मासोंकी चतुर्ददी अधवा अष्टमी तिथियोंमें
भक्तिपूर्वक यह त्रत करना चाहिये। प्रातःकाल नदी आदिमे
सखानकर पवित्र हो, श्रेष्ठ बारह ब्राह्मण-दम्पतियों अथवा अपने
गोत्रमें उत्पन्न बारह दम्पतिर्योको बुलाकर गन्ध, पुष्प, रोचना,
वख, अरूँकार, सिंदूर आदिसे उनका भक्तिपूर्वक पूजन करे ।
सुन्दर, सुडौल, अच्छिद्र, जलसे भरे हुए, सूत्रसे आवेष्टित
तथा पुष्पमाल्य आदिसे विभूषित स्वर्णयुक्त बारह वर्धनियों
(जलपूर्णं कलदा) को ब्राह्मणियोकि सामने पृथक्-पृथक् रखे ।
उनमेंसे मध्यकी एक यर्धनी उठाकर अपने सिरपर रखे तथा
उन ब्राह्मणियोंसे बाल्यावस्था, कुमारावस्था तथा वुद्धावस्थामे
किये गये पाकि ।वनादा, सुखपूर्वक मृत्यु-प्राप्ति तथा
संसार-सागरसे पार होने और भगवान्के परमपदको पानेके
लिये प्रार्थना करे। वे आह्मणियाँ भी कहें--'ऐसा ही हो।'
ब्राह्मणोंसे पापके विनाशके लिये प्रार्थना करें। ब्राह्मण उस
वर्धनीकों उसके शिरसे उतार लें और उसे आज्ञीर्वाद प्रदान
करें। उन सभी यर्धनियोको ब्राह्मण-पत्नियोंकों दे दे।
हे पार्थ ! इस प्रकार इस श्रथणिकाब्रतको भक्तिपूर्वक
करनेवाला सभी भोगोंका उपभोग कर सुखपूर्वक मृत्युका वरण
करता है और उत्तम ल्मेकको प्राप्त करता है। (अध्याय ९५)
१-गरुडपुराण, उत्तरतष्ड, अध्याय ७ में भी यह विषय विस्तारते प्रतिषाटित है। वहाँ हने देवी न कहकर श्रवन नामका पुरुष देवता कहा गया है।