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उत्तरपर्व]

* आग्नेयी शिवचतुर्दशी -त्रतके प्रसंगमे महर्षि अद्गिराका आख्यान +

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दैत्य, दानव आदिको बुल्त्र लाये। कितु भगवान्‌ सूर्य नहीं

आये। ब्रह्माजीके पुनः कहनेपर उतध्यमुनि सूर्यनारायणके

समीप जाकर बोले--'भगवन्‌ ! आप दघ्न ही हमारे साथ

ब्रह्मत्पेक चलें।' भगवान्‌ सूर्यने कहा--'मुने ! हमारे चले

जानेपर जगते अन्धकार छा जायगा, इसलिये हमारा चलना

किस प्रकार हो सकता है, हम नहीं चल सकेंगे।' यह सुनकर

उतथ्यमुनि वहाँसे चले आये और ब्रह्माजीको सब वृत्तान्त सुना

दिया। तब ब्रह्माजीने अड्विरामुनिसे सूर्यभगवानक्प्रे बुलानेके

लिये कहा । अड्विरामुनि ब्रह्माजीकी आज्ञा पाकर सूर्यनारायणके

समीप गये और उनसे ब्रह्मल्थ्रेक चल्नेको कहा । सूर्यनारायणने

वही उत्तर इनको भी दिया। तब अड्लिरने कहा--'प्रभो !

आप ब्रह्मलोक जायें, मैं आपके स्थानपर यहाँ रहकर प्रकाश

करूँगा।' यह सुनकर सूर्यनारायण तो ब्रह्माजीके पास चले

गये और अङ्गिरा प्रचण्ड तेजसो तपने लगें। इधर भगवान्‌

सूर्यने ब्रह्मजीसे पूछा--'ब्रह्मनू ! आपने किस निमित्तसे मुझे

यहाँ बुलाया है?' ब्रह्माजीनी कहा--'देव ! आप दीघ्र ही

अपने स्थानपर जार्यै, नहीं तो अङ्गिरामुनि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको

दग्ध कर डालेंगे। देखिये उनके तापसे सभी लेग दग्ध हो रहे

हैं। जबतक वे सब कुछ भस्म न कर डालें उससे पूर्व ही आप

प्रतिष्ठित हो जायें ।' यह सुनते ही सूर्यभगवान्‌ पुनः अपने

स्थानपर त्पैट आये और उन्होंने अङ्गिरामुनिकी स्तुति कर उन्हें

बिदा किया। अङ्गिरा पुनः देवताओंके समीप आये।

देवताओनि अङ्गिरामुनिकी स्तुति की और कहा--'भगयन्‌ !

जबतक हम अग्रिको ढूँढें, तबतक आप अप्निके सभी कर्म

कीजिये।' देवताओंका ऐसा वचन सुनकर महर्षि अङ्गिरा

अग्रिरूपमे देवकार्यादिको सम्पन्न करने लगे। जब अग्निदेव

आये तो उन्होंने देखा कि अज्लिरामुनि अभि बनकर स्थित हैं।

इसपर वे बोले--'मुने ! आप मेरा स्थान छोड़ दें । मैं आपकी

शुभा नामकी सीसे ज्येष्ठ एवं प्रिय पुत्रके रूपमे उत्पन्न होऊँगा

और तब मेरा नाम होगा बृहस्पति । आपके और भी बहुत-से

पुत्र-पौत्र होंगे।' यह वर पाकर प्रसन्न हो महर्षि अङ्गिराने

अग्रिका स्थान छोड़ दिया।

राजन्‌ ! अग्निदेवको चतुर्दशी तिथिको ही अपना स्यान

प्राप्त हुआ था, इसलिये यह तिथि अप्रिको अति प्रिय है और

आग्रेयी चतुर्दशी तथा रौद्री चतुर्दशीके नामसे प्रसिद्ध है।

स्वर्गमें देवता और भूमिपर मान्धाता, मनु, नहुष आदि बड़े-बड़े

ाजाओनि इस तिथिको माना है। जो पुरुष युद्धमें मारे जायें,

सर्प आदिके काटनेसे मरे हों और जिसने आत्मघात किया हो,

उनका इस चतुर्दक्ली तिथिमें श्राद्ध करना चाहिये, जिससे वे

सद्रतिको प्राप्त हो जाये इस तिथिके तका विधान इस प्रकार

है--चतुर्दश्ीको उपवास करे और गन्ध, पुष्प, धूप, दीप,

नैवेध्ध आदिसे त्रिलोचन श्रीखदाक्षिवका पूजन करे, रात्रिम

जागरण करे । र्रिमे पञ्चगव्यका प्राशन कर भूमिपर ही झयन

करे । तैल-क्षारसे रहित इयामाक (सांवा) का भोजन के ।

अग्निके नाम-मन््रद्रारा कारे तिरतर॑से १०८ आहुतियाँ प्रदान

करे । दूसरे दिन प्रातः स्वनं कर पञ्चामृत्तसे रिक्जीको लान

कराकर भक्तिपूर्वक उनका पूजन करे और पूर्वोक्त रीतिसे

हवनकर उनकी प्रार्थना करे। पीछे आरती कर ब्राह्मणको

भोजन कराये । उनको दक्षिणा दे और मौन हो स्वय भी भोजन

करे। इस प्रकार एक वर्ष व्रत कर सुवर्णकी त्रिल्ोेचन भगवान्‌

जॉकरकी प्रतिमा बनाये। प्रतिमाको चाँदीके वृषभपर स्थितकर

दो श्वेत बखोंसे आच्छादित कर ताम्रपात्रमें स्थापित करे ।

तदनन्तर गन्ध, श्वेत पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदिसे उसका

पूजन कर ब्राह्मणको दे दे । जो एक वर्षतक इस ब्रतको करता

है, वह लम्बी आयु प्राप्त कर अन्तमें तीर्थमें प्राण परित्याग कर

शिवल्ग्रेकमें देवताओंके साथ विहार करता है। वहाँ बहुत

कालतक रहकर वह पृथ्वीमें आकर ऐश्वर्य-सम्पन्न धार्मिक

राजा होता है। पुत्र-पौत्रोंसे समन्वित होता है और चिरकारूतक

आनन्दित रहता है तथा अपने अभीष्ट मनोरथोंको प्राप्त करता

है'। (अध्याय ९३)

9 ५० -

+=

१-पादः अन्व ज्यौतिष पन्यो तथा पुएणोके अनुसार अप्रिदेककी तिथि प्रतिपदा ही है । चतुर्दओ सिवजीकी तिथि है । यहां भौ सिववीकी ही पूजा

है, अतः कत्पान्तर-स्ययस्था मान लेन चाहिये !

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