उत्तरपर्व]
* विधूतिद्वादशी-ब्रतमें राजा पुष्पयाहनकी कथा *
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तुम भूखसे अत्यन्त व्याकुल ओर धकावरसे अतिशय ङ्क्त
होकर पत्नीसहित एक महलके प्ाङ्गणमे बैठ गये । वहां सात्रिमें
तुम्हें महान् मङ्गल शब्द सुनायो पड़ा। उसे सुनकर तुम
पत्नीसहित उस स्थानपर गये, जहाँ वह मड़जुलद्ाब्द हो रहा
था। वहाँ मण्डपके मध्यभागमें भगवान् विष्णुकी पूजा हो रही
थी। तुमने उसका अवलोकन किया । वहाँ अनङ्गवती नामकी
येया माघ मासकी विभूतिद्वादशी-ब्रतकी समाप्ति कर अपने
गुरुको भगवान् हषीकेदाका विधिवत् शृङ्गार कर स्वर्णमय
कल्पवृक्ष, श्रेष्ठ ठवणाचल और समस्त उपकरणोसहित
शाय्याका दान कर रही थी । इस प्रकार पूजा करती हुई
अनङ्गवतीको देखकर तुम दोनोके मनमें यह विचार जाग्रत्
हुआ कि इन कमलपुष्पोंसे क्या लेना है । अच्छा तो यह होता
कि इनसे भगवान् विष्णुं शृङ्गार किया जाता । नरेश्वर ! उस
समय तुम दोनों पति-पलीके मनमें ऐसी भक्ति उत्पन्न हुई और
इसी अर्चाके प्रसज्नमें तुम्हारे उन पुष्पोंसे भगवान् केशव और
लवणाचलकी अर्चना सम्पन्न हुई तथा शेष पुष्प-समूहोंसे तुम
दोनेनि शय्याको भी सब ओरसे सुसज्जित किया।
तुम्हारी इस क्रियासे अनम्भजती बहुत प्रसन्न हुई। उस
समय उसने तुम दोनोंको इसके बदले तीन सौ अगार्फियाँ
देनेका आदेश दिया, पर तुम दोनोंने बड़ी दुढ़तासे उस
धन-राशिको अस्वीकार कर दिया। भूपते ! तब अनड्भवतीने
तुम्हें (भक्ष्य, भोज्य, ले, चोष्य) चार प्रकारक अन्न तपरकर
दिया और कहा--'भोजन कीजिये', किंतु तुम दोनोने उसका
भी परित्याग कर दिया और कहा--'वरनने ¦ हमल्लेग कल
भोजन कर लेंगे। टृकुखते ! हम दोनों जन्मसे ही पापपरायण
और कुकर्म करनेवाले हैं, पर इस समय तुनहारे उपवासके
असब़से हमें विशेष आनन्द प्राप्त हो रहा है।' उसी प्रसङ्गमे तुम
दोक धर्मका लेझांश प्राप्त हुआ और तुम दोनेनि रातभर
जागरण भी किया था। (दूसरे दिन) प्रातःकाल अनङ्गवतीने
भक्तिपूर्वक अपने गुरुको लवणाचलसहित शय्या और अनेकों
गाँव प्रदान किये । उसी प्रकार उसने अन्य बारह ऋह्यणोको भी
सुवर्ण, वस्र, अलंकारादिसहित यारह गौ प्रदान कीं ।
तदनन्तर सुहृद्, मित्र, दीन, अधे और दरिद्रोके साथ तुम
खुब्धक-दम्पतिकों भोजन कराया और विशेष आदर-सत्कारके
साथ तुम्हें बिदा किया।
राजेन्द्र वह सपत्नीक लुब्धक तुम्हीं थे, जो इस समय
राजराजेश्वरके रूपमें उत्पन्न हुए हो। उस कमल-समूहसे
भगवान् केशवका पूजन होनेके कारण तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो
गये तथा दृढ़ त्याग, तप एवं निलॉभिताके कारण तुम्हें इस
कमलमन्दिरकी भी प्राप्ति हुई है। राजन् ! तुम्हारी उसी सात्विक
भावनाके माहात्यसे, तुम्हारे थोड़े-से ही तपसे ब्रह्मरूपी
भगवान् जनार्दन तथा लोकेश्वर ब्रह्मा भी संतुष्ट हुए हैं। इसीसे
तुम्हारा पुष्कर-मन्दिर स्वेच्छानसार जहाँ-कहों भी जानेकी
शक्तिसे युक्त है। वह अनब्भवती वेश्या भी इस समय
कामदेवकी पत्नी रतिके' सौतरूपमें उत्पन्न हुई है। यह इस
समय प्रीति नामसे विख्यात है और समस्त लोकोंमें सबको
आनन्द प्रदान करती तथा सम्पूर्णं देवताओं सत्कृत है।
इसलिये राजराजेश्वर ! तुम उस पुष्कर-गृहको भूतलपर छोड़
दो और गङ्गातरकय आश्रय लेकर विधूतिद्वादशी-ब्रतका
अनुष्ठान करो। उससे तुम्हें निश्चय ही मोक्षकी प्राप्ति
हो जायगी।
श्रीकृष्णने कहा--महाराज ! ऐसा कहकर प्रचेतामुनि
वहीं अन्तर्हित हो गये। तब राजा पुष्पवाहनने मुनिके
कथनानुसार सारा कार्य सम्पन्न किया। राजन्! इस
विभूतिद्वादशी-ब्तका अनुष्ठान करते मय अखण्ड-ब्रतका
पालन करना आवश्यक है। जिस किसी भी प्रकारसे हो सके,
बारहों द्रादरियोका तत॒ कमल-पुष्पोदवारा सम्पन्न करना
चाहिये। अनघ ! अपनी झक्तिके अनुसार ऋह्यणोको दक्षिणा
भी देनेका विधान है। इसमें कृपणता नहीं करनी चाहिये,
क्योंकि भक्तिसे ही भगवान् केशव प्रसन्न होते हैं। जो मनुष्य
पापोंको विदीर्ण करनेवाले इस व्रतको पढ़ता या श्रवण करता
है अथवा इसे करनेके लिये सम्मति प्रदान करता है, यह भी
सौ करोड़ वर्षोंतक देवलोकमें निवास करता है।
(अध्याय ८५)
(-हरिबंद्ञ एवं अत्य पुराणों तथा कथासरित्मागरादियें भी रति और प्रैति--ये दो कम्मदेखकी पनिं कहीं गयी हैं। किंतु उसकी दूसरी
पल प्रीतिकी उत्पति पूरौ कथा यहीं है।