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उत्तरपर्व ]

* अखण्ड-दवादशी, मनोरथ-द्वादशी एवं तिल द्वादशी-ब्रतोंका विधान *

३४९

नमो. वासनरूपाय नमस्तेऽस्तु त्रिविक्रम ।

नमस्ते मणिबन्धाय वासुदेव नमोऽस्तु ते॥

नमो नमस्ते गोविन्द वामनेश त्रिविक्रम ॥

अधघौघसंक्षय॑ कृत्वा सर्वकामप्रदो भव ॥

(उत्तरपर्थ ७६ । ४८-- ५१)

इसके अनन्तर भगवान्को शयन कराये । गीत-वाद्य,

स्तुति आदिके द्वारा जागरण करे । प्रातःकाले उस प्रतिमाकी

पूजाकर मन्त्रपूर्वक उसे ब्राह्मणको निवेदित कर दे । ब्राह्मणोंको

भोजन कराकर स्वयै भी मौन होकर भोजन करे । इस ब्रतके

करनेसे ब्रतीका एक मन्वन्तरपर्यन्त विष्णुलोके वास होता है,

तदनन्तर वह इस लोकमें आकर चक्रवर्ती दानी राजा होता दै ।

वह नीरोग, दीर्घायु एवं पुत्रवान्‌ होता है । (अध्याय ७६)

समाि-उदसी एवं मोकिए-झदलीकात

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा--पौष मासके कृष्ण पक्षक

द्वादशीसे ज्येष्ठ मासकी द्वादशीतक प्रत्येक मासकी कृष्ण

ड्वादशीको षाण्मासिक सम्प्राप्ति-द्वादशीत्रत किया जाता है।

प्रत्येक मासे क्रमशः पुण्डरीकाक्ष, माधव, विश्वरूप,

पुरुषोत्तम, अच्युत तथा जय--इन नामोंसे उपवासपूर्वक

भगवानकी पूजा करनी चाहिये । पुनः आषाद्‌ कृष्ण द्वादशीसे

त्रत प्रहणकर मार्गशौर्षतक ब्रतका नियम लेना चाहिये ।

पूर्वविधानसे उपवासपूर्वक उन्ही नामोसे क्रमशः भगवान्‌का

पूजन करना चाहिये । प्रतिमास ब्राह्मणको भोजने कराकर

दक्षिणा देनी चाहिये। तेल एवं क्षार पदार्थ नहीं ग्रहण करने

चाहिये । इस प्रकार एक वर्धतक इस ब्रतके करनेसे सभी

कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और अन्तम वह भगवान्के

अनुप्रहसे उनके लोकको प्राप्त कर लेता है;

अगवान्‌ श्रीकृष्णने पुनः कहा--महाराज ! इसी

प्रकार गोविन्द-ट्वादशी नामका एक अन्य व्रत है, जिसके

करनेसे सभी अभीष्ट सिद्ध हो जाते हैं। पौष मासके शुक्ल

कमलनयन भगवान्‌ गोविन्दका पूजनकर अन्तर्मनमे भी इसी

नामका उच्चारण करते रहना चाहिये। इस दिन पाखंडियॉसे

बात नहीं करनी चाहिये। ब्राह्मणोंको यथाशक्ति दक्षिणा देनी

चाहिये । ब्रतीको गोमूत्र, गोमय, दधि अथवा गोदुग्घका प्राशन

करना चाहिये । दूसरे दिन ख्नानकर उसी विधिसे गोविन्दका

पूजन कर ब्राह्मणको भोजन कराकर स्वयं भी भोजन करना

चाहिये। इसके साथ ही इस दिन गौको तृप्तिपूर्वक भोजन

कराना चाहिये। इसी प्रकार प्रतिमासं व्रतं करते हुए वर्ष

समाप्त होनेपर भगवती लक्ष्मीके साथ सुवर्णकी भगवान्‌

गोविन्दकी प्रतिमा बनवाकर पुष्प, धूप, दीप, माला, नैवेद्य

आदिसे उनका पूजनकर सवत्सा गौसहित ब्राह्यणोके देना

चाहिये। प्रतिमास गौ ओंकी पूजा तथा उन्हें ग्रासादिसे तृप्त

करना चाहिये। पारणाके दिन विशेषरूपसे उनकी सेवा-भक्ति

करनी चाहिये। इस ब्तक्यं करनेसे वही फल प्राप्त होता है जो

सुवर्णशृङ्गी सौ गौओंके साथ एक उत्तम वृषका दान देनेसे होता

है। इस व्रतको सम्यक्रूपसे करनेवाला सब सुख भोगकरं

पक्षकी द्रादशीको उपवास कर पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदिमे अन्ते गोलोकको प्राप्त होता है। (अध्याय ७७-७८)

अखण्ड-द्वादशी, मनोरथ-द्वादशी एवं तिल-द्वादशी-ब्रतोंका विधान

राजा युश्चिष्ठिरने पूछा--श्रीकृष्ण ! व्रतोपवास, दान,

धर्म आदिमे जो कुछ वैकल्य अर्धात्‌ किसी बातकी न्यूनता रह

जाय तो क्या फल होता है ? इसे आप क्तलाये ।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण योल - महाराज ! राज्य पाकर भी

जो निर्धन, उत्तम रूप पाकर भी काने, अंधे, लैंगड़े हो जाते

हैं, वे सब धर्म-वैकल्यके प्रभावसे ही होते हैं। धर्म-वैकल्यसे

ही स्त्री-पुरुषोंमें बियोग एवै दुर्भगत्व होता है, उत्तम कुलमें

जन्म पाकर भी लोग दुःशील हो जाते हैं, धनाक्य होकर भी

घनका भोग तथा दान नहीं कर सकते तथा वस्र-आभृष्णोसि

हीन रहते हैं। वे सुख प्राप्त नहीं कर पाते। अतः यज्ञमें,

ब्रतमें और भी अन्य धर्म-कृत्योमिं कभी कोई त्रुटि नहीं होने

देनी चाहिये।

युधिष्ठिरे पुनः कहा--भगवन्‌ ! यदि कदाचित्‌

उपवास आदिमे कोई त्रुटि हो ही जाय तो उसके निवारणार्थं

क्या करना चाहिये ?

श्रीकृष्ण चोले-- मयराज ! अखण्ड द्वादशौ -त्रत

करनेसे सभी प्रकारकी धार्मिक त्रुटियाँ दूर हो जाती है । अब

आप उसका भी विधान सुने । मार्गशीर्षं पासके शुक्ल पक्षकी

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