उत्तरपर्व]
* श्रवणद्वादशी -व्रतके प्रसंगे एक वणिक्की कथा «
३ड७
ब्राह्मणको निवेदित कर दे।
श्रीकृष्णने पुनः कहा--महाराज ! इस ब्रतके प्रसंगे
एक प्राचीन आख्यान है, उसे आप सुतै-- दशार्ण देशके
पश्चिम भागमे सम्पूर्ण प्राणियोंकों भय देनेवाला एक मरुदेश
है। यहाँके भूमिकी बालू निरन्तर तपती रहती है, यत्र-तत्र
भयंकर साँप घूमते रहते हैं। वहाँ छाया बहुत कम है । वक्षोमें
पत्ते कम रहते हैं। प्राणी प्रायः मरे-जैसे ही रहते हैं। शमी,
खैर, पलाश, करील, पीलु आदि केंटीले वृक्ष वहाँ हैं। वहाँ
अन्न और जल बहुत कम मिलता है। वृक्षोके कोटरोंमें
छोटे-छोटे पक्षी प्यासे ही मर जाते हैं। वहाँकि प्यासे हरिण
मरु-भूमिमें जलकी इच्छासे दौड़ लगाते रहते हैं और जल न
मिलनेसे मर जाते हैं।
उस मरुस्थलमें दैववश एक वणिक् पहुँच गया। वह
अपने साथियोंसे बिछुड़ गया था। उसने इधर-उधर घूमते हुए
भयंकर पिशार्चोक्रो वहाँ देखा। वह वणिक् भूख-प्याससे
व्याकुल होकर इधर-उधर घूमने लगा । कहने लगा-- ख्या
करूँ, कहाँ जाऊँ, कहाँसे मुझे अन्न-जल प्राप्त हो । तदनन्तर
उसने एक प्रेतके स्कन्धप्रदेशपर बैंठे एक प्रेतको देखा। जिसे
चारों ओरसे अन्य प्रेत घेरे हुए थे । कन्येपर चढ़ा हुआ यह प्रेत
वणिक्कों देखकर उसके पास आया और कहने लगा--'तुम
इस निर्जल प्रदेशमें कैसे आ गये ?' उसने बताया--'मेरे
साथी छूट गये हैं, मैं अपने किसी पूरव -कुकृत्यके फलसे या
संयोगसे यहाँ पहुँच गया हूँ। भूख और प्याससे मेरे प्राण
निकल रहे हैं। मैं अपने जीनेका कोई उपाय नहीं देख रहा हूँ।'
इसपर वह प्रत बोला--' तुम इस पुत्राग वृक्षके पास क्षणमात्र
प्रतीक्षा करो । यहाँ तुम्हें अभीष्ट-लाभ होगा, इसके बाद तुम
यथेच्छ चले जाना ।' वणिक् वहीं ठहर गया । दोपहरके समय
कोई व्यक्ति पुन्नाग वृक्षसे एक कसेरिमे जल तथा दूसरे
कसोरेमें दही और भात लेकर प्रकट हुआ और उसने वह
वणिक्को प्रदान किया। वणिक् उसे ग्रहणकर संतुष्ट हुआ।
उसी व्यक्तिने प्रेत-समुदायकों भी जल और दही-भात दिया,
इससे वे सभी संतृप्त हो गये। शेष भागको उस व्यक्तिने स्वयं
भी ग्रहण किया। इसपर आक्ष्यचकित होकर वणिक्ने उस
ग्रेताधिपसे पूछ--ऐसे दुर्गम स्थाने अन्न-जलकी प्राप्ति
आपको कहाँसे होती है ? धोड़ेसे ही अन्न-जलसे बहुतसे लोग
कैसे तृप्त हो जाते हैं। मुझे सहारा देनेवाले इस स्थानमें आप
कैसे मिल गये? हे शुभव्रत ! आप यह बतलायें कि
ग्रासमात्रसे ही आपको संतुष्टि कैसे हो गयी ? इस घोर
अटवीमें आपने अपना स्थान कहाँ बनाया है? मुझे बड़ा
करैतृहल हो रहा है, मेरा संशय आप दूर करें।'
ज्ताश्चिपने कहा--हे भद्र ! मैंने पहले बहुत दुष्कृत
किया था। दुष्ट बुद्धिवाला मैं पहले रमणीय शाकल नगरमे
रहता था। व्यापारमें ही मैने अपना अधिकांश जीवन बिता
दिया । प्रमादवश मैंने घनके लोभसे कभी भी भूखेको त अन्न
दिया और न प्यासेकी प्यास ही बुझायी। मेरे ही घरके पास
एक गुणवान् ब्राह्मण रहता था। वह भाद्रपद मासकी श्रवण
नक्षत्रसे युक्त द्वादशीके योगमें कभी मेंरे साथ तोषा नामकी
नदीमें गया। तोषा नदीका संगम चदद्रभागासे हुआ है।
चन्द्रभागा चद्रमाकी तथा तोषा सूर्यकी कन्या हैं। उन दोनोौका
शीतोष्ण जल बड़ा मनोहर है । उस तीर्थम जाकर हमलोगोनि
खान किया और उपवास किया । हमने वहाँ दध्योदन, छतर,
कसर आदि उपचारोसे भगवान् विष्णुकी प्रतिमाकी पुजा की ।
इसके अनन्तर हमलोग घर आ गये । मेके अनन्तर नास्तिकं
होनेसे मैं प्रेतत्वको प्राप्त हुआ। इस घोर अटवी जो हो रहा
है, कह तो आप देख ही रहे हैं। ये जो अन्य प्रेतणण आप देख
रहे हैं, इनमें कुछ ब्राह्मणॉके धनका अपहरण करनेवाले, कोई
परदारारत हैं, कोई अपने स्वामीसे द्रोह करनेवाले तथा कोई
मित्रद्रोही हैं। मेरा अन्न-पान करनेसे ये सब मेरे सेवक बन गये
हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अक्षय, सनातन परमात्मा हैं। उनके
उद्देश्यसे जो कुछ भी दान किया जाता है वह अक्षय होता है।
है महाभाग ! आप हिमालयमें जाकर धन प्राप्त करेंगे,
अनन्तर मुझपर कृपाकर आप इन प्रेतोंकी मुक्तिके लिये गयामें
जाकर श्राद्ध करें। इतना कहकर वह प्रेताधिप मुक्त होकर
विमानमें बैठकर स्वर्गलोक चला गया।
परेताधिपके चले जानेपर वह वणिक् हिमालयमें गया
और वहाँ घन प्राप्त कर अपने घर आ गया और उस धनसे
उसने गया तीर्थम अक्षयवटके समीप उन प्रेतोंके उद्देश्यसे
श्राद्ध किया । वह वणिक् जिस-जिस प्रेतकी मुक्तिक निषित्त
श्राद्ध करता था, वह प्रेत वणिक्कों स्वप्रे दर्शन देकर कहता
था कि 'हे महाभाग ! आपकी कृपासे मैं प्रेतल्वसे मुक्त हो गया