उत्तरपर्व ]
* मललद्वादझी एवं भीमद्वादशी-ग्रतका विथान +
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मल्लद्वादशी एवं भीमद्रादशी-त्रतका विधान
युधिष्ठिरके द्वारा मल्लद्रादशीके विषयमे पूछे जानेपर
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा--महाराज ! जब मेरी अवस्था
आठ वर्षकी थी, उस समय यमुना-तटपर भाण्डीर-बनमें कट ~
वृक्षके नीचे एक सिंहासनपर मुझे बैठाकर सुरभद्र, मण्डलीक,
योगवर्धन तथा यक्षेन्द्रदद्त आदि बड़े-बड़े मल्लो और
गोपाली, धन्या, विशाखा, ध्याननिष्ठिका, अनुगन्धा, सुभगा
आदि गोपियोनि दही, दूध और फल-फूल आदिसे मेय पूजन
करिया । तत्पश्चात् तीन सौ साठ मल्लोनि भक्तिपूर्वक मेरा पूजन
करते हुए मल्लयुद्धको सम्पन्न किया तथा हमारी प्रसत्रताके
लिये बड़ा भारी उत्सव मनाया । उस महोत्सवमे भाँति-भाँतिके
भक्ष्य-भोज्य, गोदान, गोष्ठी तथा पूजन आदि कार्य सम्पन्न
किये गये थे । श्रद्धापूर्वक आ्राह्मणोंका पूजन भी हुआ था । उसी
दिनसे यह मल्लद्रादशी प्रचलित हुई। इस वर्को मार्गशीर्ष-
मासके शुक्ल पश्चकी द्रादशीसे आरम्भ कर कार्तिक मासके
शुक्ल पक्षकी द्रादशीतक करना चाहिये और प्रतिमास क्रमसे
केशव, नारायण, माधव, गोविन्द, विष्णु, मधुसुदन, त्रिविक्रम,
वामन, श्रीधर, हषीकेश, पद्मनाभ तथा दामोदर--इन नामोसे
गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, गीत-बाद्य, नृत्य-सहित पूजन करे और
"कृष्णो मे प्रीयताम्" इस प्रकार उच्चारण करे । यह द्रादशीत्रत
मुझे बहुत प्रिय है चकि मल्लनि इस व्रतको प्रारम्भ किया था,
अतः इसका नाम मल्लद्रादशी है । जिन गोपोकि द्वारा इस
ब्रतकों सम्पन्न किया गया उन्हें गाय, महिषी, कृषि आदि प्रचुर
मात्रामें प्राप्त हुआ। जो कोई पुरुष इस व्रत्को सम्पन्न करेगा,
मेरे अनुग्रहसे वह आरोग्य, बल, ऐश्वर्य और शाश्वत
किष्णुलोकको प्राप्त करेगा।
भगवान् श्रीकृष्ण पुनः बोल्ले--महाराज ! प्राचीन
कालमें विदर्भ देशमें भीम नामक एक प्रतापी राजा थे। ये
दमयन्तीके पिता एवं राजा नलके ससुर थे। राजा भीम बड़े
पराक्रमी, सत्यवक्ता और प्रजापालक थे। वे शास्त्रोक्त-विधिसे
राज्य-कार्य करते थे। एक दिन तीर्थयात्रा करते हुए ब्रह्माजीके
पुत्र पुलस्त्यमुनि उनके यहाँ पधारे। राजाने अर्ध्य-पाद्यादिद्वारा
उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। पुलस्त्यमुनिने प्रसन्न होकर
ग़जासे कुशल-क्षेम पूछा, तब राजाने अत्यन्त विनयपूर्वक
कला-- "महाराज ! जहाँ आप-जैसे महानुभावका आगमन
सन भः पु* अ १२-
हो, वहाँ सब कुशल ही होता है । आपके यहाँ पधारनेसे मैं
पवित्र हो गया ।' इस तरहसे अनेक प्रकारकी ख्रेहकी यातें
राजा तथा पुलस्त्यमुनिके बीच होती रहीं । कुछ समयके पश्चात्
विदर्भाधिपति भीमने पुलस्त्यमुनिसे पुछा--प्रभो ! संसारके
जीव अनेक प्रकारके दुःखोंसे सदा पीडित रहते हैं और उसमें
गर्भवास सबसे बड़ा दुःख है, प्राणी अनेक प्रकारके रोगसे
अस्त हैं। जीवॉकी ऐसी दशाको देखकर मुझे अत्यन्त कष्ट होता
है। अतः ऐसा कौन-सा उपाय है, जिसके द्वारा थोड़ा परिश्रम
करके ही जीव संसारके दुःखोंसे छुटकारा पानेमें समर्थ हो
आय । यदि कोई ब्रत-दानादि हो तो आप मुझे बतलायें।
पुलस्त्यमुनिने कहा--ग़जन् ! यदि मानव माघ मासके
शुक्ल पक्षकी द्रादशीको उपवास करे तो उसे कोई कष्ट नहीं
हो सकता। यह तिथि परम पवित्र करनेवाली है। यह व्रत
अति गुप्त है, किंतु आपके नेहने मुन्ञे कहनेके लिये विवश
कर दिया है। अदीक्षितसे इस ब्रतक्रो कभी नहीं कहना
चाहिये, जितेन्द्रिय, धर्मनिष्ठ और विष्णुभक्तं पुरुष ही इस
त्रतके अधिकारी हैं। ब्रह्मघाती, गुरुघाती, स््रीघाती, कृतघ्न,
मित्रद्रोही आदि बड़े-बड़े पातकी भी इस ब्रतके करनेसे
पापमुक्त हो जाते हैं। इसके लिये शुद्ध तिथिमें और अच्छे
मुहूर्तमें दस हाथ लम्बा-चौड़ा मण्डप तैयार करना चाहिये तथा
उसके मध्यमे पाँच हाथकी एक वेदौ बनानी चाहिये। वेदीके
ऊपर एक मण्डल बनाये, जो पौव रंगोंसे युक्त हो । मण्डपमें
आठ अथवा चार कुण्ड बनाये। कुण्डम ब्राह्मणोंको
उपस्थापित करें। मण्डलके मध्यमें कर्णिकाके ऊपर
पश्चिमाभिमुख चतुर्भुज भगवान् जनार्दनकी प्रतिमा स्थापित कर
गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि भाँति-भाँतिके उपचारो तथा
नैवेद्योंसे शास्त्रोक्त-विधिसे ब्राह्मणोंद्रारा उनकी पूजा करनी
चाहिये । नारायणके सम्मुख दो स्तम्भ गाड़कर उनके ऊपर एक
आड़ा काष्ठ रख उसमें एक दृढ़ छींका धना चाहिये । उसपर
सुवर्ण, चाँदी, ताप्र अथवा मृत्तिकाका सहस, शत अथवा एक
छिद्रसमन्वित उत्तम कलश जल, दूध अथवा घीसे पूर्ण कर
रखना चाहिये। पलाशकी समिधा, तिल, घृत, खीर और
शमी-पत्रोंसे ग्रहोंके लिये आहुति देनी चाहिये। ईशान-क्ोणमें
ग्रहोंका पीठ-स्थापन कर ग्रह-यज्ञविधानसे ग्रहोंकी पूजा करनी