३४४ » पुराणं परम पुण्य॑ भविष्य सर्वसोौख्यदम् + [ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
भीष्मपञ्चक-व्रतकी विधि एवं महिमा
युश्रिप्टिरे कहा--हे यदुश्रेष्ठ कृष्ण ! कार्तिक मासमे सुगन्धित पदार्थोके द्वारा भगवान् गरुडध्वज विष्णुका उपलेपन
श्रीभीष्मपश्चक नामका जो श्रेष्ठ व्रत होता है, अब कृपया
उसका विधान बताइये।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--महाराज ! मैं आपसे व्रति
सर्वोत्तम भीष्मपञ्चक-व्रतका वर्णन कर रहा हूँ। मैंने पहले इस
तका उपदेश भृगुजीको किया था, फिर भृगुने शुक्राचार्यको
और शुक्राचार्यने प्रहाद आदि दैत्यो एवं अपने शिष्य
ब्रह्मणोको बताया । जैसे तेजस्वियोमें अम्रि, शीघ्रगामियोमें
पवन, पूजनीयोंमें ऋह्मण एवं दानोमें सुवर्ण-दान श्रेष्ठ है, वैसे
ही ब्रतोंमें भीष्पपश्क-ब्रत श्रेष्ठ है। लोकोमिं भूर्लोक, तीर्थं
गङ्गा, यज्ञॉमें अश्वमेध, शाखोंमें वेद तथा देवताओमें
अच्युतका जैसा स्थान है, ठीक उसी प्रकारसे व्रतम
भीष्मपञ्चक सर्वोत्तम है। जो इस दुष्कर भीष्मपद्धक-त्रतका
अनुष्ठान कर लेता है, उसके द्वारा सभी धर्म सम्पादित हो जाते
हैं। पहले सत्ययुगमें वसिष्ठ, भृगु, गर्ग आदि मुनियोने, फिर
त्रेतामें नाभाग, अम्बरीष आदि राजाओनि और द्वापरमें सीरभद्र
आदि वैश्योने तथा कलियुगमें उत्तम आचरणवाले शूद्रोने भी
इस ब्रतका अनुष्ठान किया । ब्राह्मणोने ब्रह्मचर्य-पालन, जप
तथा हवन-कर्मके द्वारा और क्षत्रियों एवं वैश्योनि सत्य-शौच
आदिके पालनपूर्वक इस ब्रतका अनुष्ठान किया है। सत्यहीन
मूढ मनुष्येकि लिये इस व्रतका अनुष्ठान असम्भव है। यह
भीष्पपञ्षक-अ्रत पाँच दिनतक होता है। इस भीष्मपक्षक-्तमें
असत्यभाषण, शिकार खेलने आदि अनुचित कर्मोंका त्याग
करना चाहिये। पाँच दिन विष्णु भगवान्का पूजन करते हुए
शाकमात्रका ही आद्र करना चाहिये। पतिकी आज्ञासे खी भी
सुख-प्राप्तिहेतु इस ब्रतका आचरण कर सकती है। विधवा
नारी भी पुत्र-पौत्रोंकी समृद्धि अथवा मोक्षार्थ इस ब्रतको कर
सकती है। इसमें कार्तिक मासपर्यन्त नित्य प्रात:-स्रान, दान,
मध्याह्न-स्नान और भगवान् विष्णुके पूजनका विधान है। नदी,
झरना, देवखात या किसी पवित्र जलाशयमें शरीरमें गोमय
लगाकर स्नान कर जौ, चावल तथा तिलॉसे देवता, ऋषियों
और पितरोंका तर्पण करना चाहिये। भगवान् किष्णुको भी
मधु, दुग्ध, घी तथा चन्दनमिश्रित जलसे भक्तिपूर्वक स्नान
कराना चाहिये । कर्पुर, पञ्चगव्य, कुंकुम (केसर), चन्दन तथा
करना चाहिये। उनके सामने एक दीफ्क पाँच दिनॉतक
अनवरत दिन-रात प्रज्वलित रखना चाहिये। भगवान्को नैवेद्य
निवेदित कर “ॐ नमो चासुदेवाय' का अष्टोत्तरशत-जप,
तदनन्तर षडक्षर-मन्त्रसे हवन करना चाहिये तथा विधिपूर्वक
साय॑कालीन सध्या करनी चाहिये । जमीनपर सोना चाहिये । ये
सभी कार्य पाँच दिनोंतक किये जाने चाहिये । इस व्रतम पहले
दिन भगवान् विष्णुके चरणोंकी कमल-पुष्पोंके द्वारा पूज करनी
चाहिये । दूसरे दिन बिल्वपत्रके द्वारा उनके घुटनोंकी, तीसरे
दिन नाभि-स्थलपर केवड़ेके पुष्पद्वारा पूजा करनी चाहिये।
चौथे दिन विल्व एवं जपा-पुष्पोंसे भगवानके स्कन्ध-प्रदेशकी
पुजा करनी चाहिये और पाँचवें दिन मालती-पुष्पोंसे भगवानके
शिग्रेभागकी पूजा करनी चाहिये।
इस प्रकार हृषीकेशका पूजन करते हुए ब्रतीको
एकादशीके दिन ब्रत कर अभिमन्त्रित गोमय तथा द्वादशीको
गोमूकका प्राशन करना चाहिये। त्रयोदशीको दूध तथा
चतुर्दशीको दधिका प्राशनं करना चाहिये। कायशुद्धिके लिये
चारों दिन इनका प्रशन करना चाहिये । पाँचवें दिन स्नानकर
कैशवकी विधिवत् पूजा करनी चाहिये । तत्पश्चात् ब्राह्मणको
भक्तिपूर्वक भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिये । इसी प्रकार
पुराण-वाचकोॉको भी वस्ाभूखण प्रदान करना चाहिये । सत्रिमें
पहले पञ्चगव्य-पान करके पीछे अन्न भोजन करे । इस प्रकारसे
भीष्पपञ्चक-त्रतका समापन करना चाहिये । यह भीष्पपञ्चक-
ब्रत परम पवित्र और सम्पूर्णं पाठका नाश करनेवाला है ।
जन् ! इसी भीष्मपञ्चक-्तका वर्णन शरशय्यापर पड़े हुए
महात्मा भीष्मने स्वयं किया धा । इसे मैनि आपको बता दिया ।
जो मानव भक्तिपूर्वकं इस व्रत्का पालन करता है, उसे
भगवान् अच्युत मुक्ति प्रदान करते हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ,
वानप्रस्थ अथवा संन्यासी जो कोई भी इस व्रतक्ये करते हैं,
उन्हें वैष्णव-स्थान प्राप्त होता है । कार्तिक शुक्ल एकादशौसे
व्रत प्रारम्भ करके पौर्णमासीको तत पूर्ण करना चहिये । जो
इस ब्रतकों सम्पन्न करता है, वह ब्रह्महत्या, गोहत्या आदि
बड़े-बड़े पापोसे भी मुक्त हो जाता है और शुद्ध सदरतिक प्राप्त
होता है। ऐसा भीष्यका वचन है। (अध्याय ७२)
चा
न