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* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्वदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू
[य
दानव, गन्धर्व, मुनि, विद्याधर एवं नाग तथा उनकी पलियोसि
वे पूजित थे । सनकादि भौ उनकी पूजा कर रहे थे।
राजन् ! कार्तिक मासके शुक्ल पक्ष (मतान्तरसे कृष्ण
पक्ष) की द्वादशौ तिधिमे ब्रह्मवादी ऋषिोनि सवत्सा
गोरूपधारिणी उमादेवीकी नन्दिनी नामसे भक्तिपूर्वक पूजा की
थी । इसीलिये इस दिन गोवत्सद्वादशौवत किया जाता है ।
तभीसे उस ब्रतका पृथ्वीतलपर प्रचार हु राजा उत्तानपादने
जिस प्रकार इस व्रतको पृथ्वोपर ग्रचारित किया उसे आप
सुनें--
उत्तानपाद नामक एक क्षत्रिय राजा थे । जिनकी सुरुचि
और शुष्नी (सुनीति) नामकी दो रानियां थीं। सुनीतिसे धुव
नामका पुत्र हुआ। सुनीतिने अपने उस पुत्रको सुरुचिकों सौंप
दिया और कहा--'हे सि ! तुम इसकी रक्षा करो । मैं सदा
स्वयं सेवामें तत्पर रहूँगी।' सुरुचि सदा गृहकार्य सैंभालती
और पतिव्रता सुनीति सदा पतिकी सेवा करती थी। सपत्नी-
दवेषके कारण किसी समय क्रोध और मात्सर्यसे सुरुचिने
सुनीतिके शिशुकों मार डाला, किंतु वह तत्क्षण ही जीवित
होकर हसता हुआ माँकी गोदमें स्थित हो गया । इसी प्रकार
सुरुचिने कई बार यह कुकृत्य किया, किंतु वह बालक
यार-बार जीवित हो उठता । उसको जीवित देखकर आश्चर्य-
चकित हो सुरुचिने सुनौतिसे पूछा--'देवि ! यह कैसी विचित्र
घटना है और यह किस ब्रतका फल है, तुमने किस हवन या
ब्रतका अनुष्ठान किया है? जिससे तुम्हारा पुत्र बार-बार
जीवित हो जाता है। क्या तुम्हें मृतसंजीवनी विद्या सिद्ध है ?
रत्र, महारल या कौन-सी विशिष्ट विद्या तुम्हारे पास है---यह
सत्य-सत्य बताओ ।'
सुनीतिने कहा-बहन ! मैंने कार्तिक मासकौ
द्वादशीके दिन गोवत्सब्रत किया है, उसीके प्रभावसे मेरा पुत्र
पुनः-पुनः जीवित हो जाता है। जब-जब मैं उसका स्मरण
करती है, वह मैरे पास ही आ जाता है। प्रवासमें रहनेपर भी
इस ब्रतके प्रभावसे पुत्र प्राप्त हो जाता है । इस गोवरत्सद्वादशी -
ब्रतके करनेसे हे सुरुचि ! तुम्हें भी सब कुछ प्राप्त हो जायगा
और तुम्हारा कल्याण होगा। सुनीतिके कहनेपर सुरुचिने भी
इस ब्रतका पालन किया, जिससे उसे पुत्र, घन तथा सुख प्राप्त
हुआ। सृष्टिकर्ता ब्रह्मेने सुरुचिको उसके पति उत्तानपादके
साथ प्रतिष्ठित कर दिया और आज भी वह आनन्दित हो रही
है। दस नक्षत्रोंसे युक्त धुव आज भौ आकाशमें दिखायी देते
हैं। धुव नक्षत्रक्रों देखनेसे सभी फापोंसे तिमुक्ति हो जाती है।
युधिष्ठिरे कहा--हे भगवन् ! इस व्रतकी विधि
भी बतायें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--हे कुरुश्रेष्ठ ! कार्तिक
मासमे शुक्ल पक्षकी द्वादशीको संकल्पपूर्वक श्रेष्ठ जलाशयमें
खान कर पुरुष या स्त्री एक समय ही भोजन करे । अनन्तर
मध्याहके समय वत्ससमन्वित गौकी गन्ध, पुष्प, अक्षत,
कुंकुम, अलक्तक, दीप, उड़दके बड़े, पुष्यों तथा
पुष्पमालाओंद्रीर इस मन्त्रसे पूजा करें--
ॐ माता रुद्गाणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य
जाभिः। प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं
वधिष्ट नमो नपः स्वाहा ॥ (ऋ ८ । १०६। १५)
इस प्रकार पूजाकर गौकों ग्रास प्रदान करे और
निम्नलिखित सन््रसे गौका स्पर्श करते हुए प्रार्थना एवं
क्षमा-याचना करे--
ॐ सर्वदेघमये देवि लोकानां शुभनन्दिनि ।
मातर्मपाभिलयितं सफले कुरु नन्दिनि ॥
(उत्तरपर्व ६९१८५)
इस प्रकार गौकी पूजाकर जलसे उसका पर्युक्षण करके
भक्तिपूर्वक गौको प्रणाम करे । उस दिन तवापर पकाया हुआ
भोजन न करे और ब्रह्मचर्यपूर्वक पृध्वीपर शयन करे । इस
ब्रतके प्रभावसे व्रती सभी सुखोको भोगते हुए अन्तम गौके
जितने येये है, उतने वर्पोतक गोलोके वास करता है, इसमे
संदेह नहीं दै ।
(अध्याय ६९)
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देवशयनी एवं देवोत्थानी द्वादशीत्रर्तोका विधान
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--राजन् ! अब मैं गोविन्द-
शयन नामक ब्रतका वर्णन कर रहा हूँ और कटिदान, समुत्थान
एवं चातुर्मास्थक्षतका भी वर्णन करता हूँ, उसे आप सुने ।
युधिष्ठिरने पूषछठा -- महाराज ! यह देव-शयन क्या है ?