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* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् |
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
गया। अन्तमें पुनः वह विदर्भ देशका धर्मात्मा राजा हुआ । वह
भक्तिपूर्वक तास्कद्धादशीका व्रत किया करता था। उसके
प्रभावसे बहुत समयतक निष्कण्टक राज्यकर, मरनेषर उसने
विष्णुलोकक प्राप्त किया ।
राजा युधिष्ठिरे पृष्ठा - कृष्णचन्द्र ! इस व्रत्को किस
प्रकार करना चाहिये ?
भगवान् श्रीकृष्णने कहा-- राजन् ! मार्गशीर्ष मासके
शुक्ल पक्षकी द्रादशीको तारकद्रादशी-्त करना चाहिये ।
प्रात-कय नदी आदिमे स्नानकर तर्पण, पूजन आदि सम्पन्न
कर सूर्यास्ततक हवन करता रहे । सूर्यास्त होनेपर पवित्र भूमिके
ऊपर गोमयसे ताराओंसहित एक सूर्य -मण्डलक् निर्माण करे ।
उस आकाशम चन्दनसे धुव भौ अङ्कति करे । अनन्तर
तारके अर्ध्यपात्रमें पुष्प, फल, अक्षत, गन्ध, सुवर्णं तथा जल
रखकर मस्तकतक उस अर्ध्यपात्रकों उठाकर दोनों जानु ओके
भूमिपर टेककर पूर्वाभिमुख होकर "सहस्रशीर्षा" इस मन््रसे
उस मण्डलको अर्घ्यं प्रदान करे । अनन्तर ब्राह्मण-भोजन
कराना चाहिये । मार्गशीर्ष आदि वारह महीनोंमें क्रमशः
खण्डवेष्टक, सतू, गुडयुक्त पूरी, मधुशीर्ष, पायस, घृतपर्ण
(करेज) और कसारका भोजन ब्राह्मणको कराये । तदनन्तर
कषमा-प्रार्थना कर मौन-धारणपूर्वक स्वयं भी भोजन करे ।
उद्यापनमें चाँदीका तारकमण्टल बनाकर उसकी पूजा करे ।
मोदकके साथ बारह घड़े तथा दक्षिणाके साथ वह मण्डल
ब्राह्मणको निवेदित कर दे । इस विधिसे जो पुरुष और स्त्री इस
तारकद्वादशी-ब्रतको करते हैं, वे सूर्ये समान देदीप्यमान
विमानोमिं बैठकर नक्षत्र-लोकको जाते है । वहाँ अयुत वर्षोतक
निवास कर विष्णुलोकको प्राप्त करते है । इस व्रत्को सती,
पार्वती, सीता, राजी, दमयन्ती, रुक्मिणी, सत्यभामा आदि श्रेष्ठ
नारियोने किया था । इस ब्तको करनेसे अनेक जन्मे किये
गये पातक नष्ट हो जाते हैं। (अध्याय ६५)
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अरण्यद्वादशी -त्रतका विधान और फल
महाराज युधिष्ठिरे कहा--श्रीकृष्णयन्ध ! आप
अरण्यद्रादशी -त्रतका विधान बतलायें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-- कौन्तेय ! प्राचीन कालमें
जिस वतको रमचनद्रजीकी आज्ञासे वनमे सौताजीने किया था
और अनेक प्रकारके भक्ष्य-भोज्य आदिसे मुनिपत्नियोंको
संतुष्ट किया धा, उस आरण्यद्वादश्ञी-त्रतका विधान मैं बतलाता
हूँ, आप प्रीतिपूर्वक सुनें । इस तरतमे मार्गशीर्ष मासकी शुक्ला
एक्दशीको प्रातः स्नानकर भगवान् जनार्दनकी भक्तिपूर्वक
गन्ध, पुष्पादि उपचारोंसे पूजा करनी चाहिये और उपवास
रखना चाहिये । रात्रिमें जागरण करना चाहिये । दूसरे दिन खान
आदि करके वेदज्ञ ब्राह्मणॉंकी उपयनमें ले जाकर प्रायः फल
आदि भोजन कराना चाहिये। अनन्तर पञ्चगच्यका प्राशन कर
स्वये भी भोजन करना चाहिये।
इस विधिसे एक वर्षतक त्रत करे। श्रावण, कार्तिक,
माघ तथा चैत्र मासमे वृक्षादिसे सुशोभित किसी सुन्दर वनमें
अरण्यवासियों, मुनियों तथा ब्राह्मणोंक्रो पूर्व या उत्तरमुख
आसनपर बैठाकर मण्डक, घृतपूर, खण्डवेष्टक, शाक,
व्यञ्जन, अपूप, मोदक तथा सोहालक आदि अनेक प्रकारके
पक्वान्न, फल तथा विभिन्न भोज्य पदार्थोसे संतुष्ट करे और
दक्षिणा प्रदान करे । कर्पूर, इलायची, कस्तूरी आदिसे सुगन्धित
पानक पिलाना चाहिये । यनपे रहनेवाले मुनिगण एवं उनकी
पत्नियों, एक दण्डी अथवा त्रिदण्डी और गृहस्थ आदि अन्य
ब्राह्मणोंको भी भोजन कराना चाहिये । वासुदेव, जनार्दन,
श्रीधर, हृषीकेश, पुण्डरीकश्च तथा वगह--इन बारह नामस
नमस्कारपूर्वक एक-एक ब्राह्मणको भोजन कराकर वस्त्र और
दक्षिणा देकर "विष्णुम प्रीयताम्" यह वाक्य कहकर अपने
मित्र, सम्बन्धी ओर वान्धवोकि साथ स्वयै भी भोजन करे । इस
प्रकारसे जो अरण्यद्रादशी-व्रत करता है, वह अपने परिवारके
साथ दिव्य विमानमें बैठकर भगवान्के धाम श्रेतद्रीपमें निवास
करता है। वह वहाँ प्रल्यपर्यन्त निवासकर मुक्ति प्राप्त करता
है। यदि कोई स्त्री भी इस ब्रतका आचरण करती है तो वह भी
संसारके सभी सुखोंका उपभोग कर भगवानकी कृपासे
पतिलोक प्राप्त करती है। (अध्याय ६६)
नवप