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३8४ » पुराणै परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ « [ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु

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मैवेद्यके रूपमे समर्पित करे । प्रत्येक दशहराकों दस गौ दस छिनत्तु वैष्णवीं मायां भक्त्या प्रीतो जनार्दनः ।

ब्राह्मणोंकों दे। नैवेद्यका आधा भाग भगवानके सामने रख दे, श्वेतट्वीपं. नयत्वस्मान्पयात्पा. बिनिवेदितः ॥

चौथाई ब्राह्मणकों दे और चौथाई भाग पवित्र जलाशयपर (उत्तरफर्व ६३ ॥ २४-२५)

जाकर बादमें स्वयं भी ग्रहण करे । गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि "दस अवतारॉंको धारण करनेवाले सर्वव्यापी, सम्पूर्ण

उपचारोंसे मन्त्रपूर्वक दशावतारोका पूजन करे । भगवानके दस संसारके स्वामी हे नारायण हरि ! मैं आपकी शरणमे आया हूँ।

अवता्ंके नाम इस प्रकार है"-- (१) मत्स्य, (२) कुर्म, हे देव ! आप मुझपर प्रसन्न हों। जनार्दन ! आप भक्तिद्वाय

(३) वयह, (४) नृसिंह, (५) श्रििक्रम (वामन), प्रसन्न होते है । आप अपनी वैष्णवी मायाको निवारित करें,

(६) परशुराम, (७) श्रीराम, (८) श्रीकृष्ण, (९) बुद्ध तथा मुझे आप अपने धाममें ले चलें । मैंने अपनेको आपके लिये

गतोऽस्मि दारणं देव॑ हरि नारायणं प्रभुम्‌ ।

श्रणतोऽस्मि जगन्नाथं स में विष्णुः प्रसीदतु ॥

सौंप दिया है।'

इस प्रकार जो इस कतके करता है, वह भगवानके

अनुग्रहसे जन्म-मरणसे छुटकारा प्राप्त कर लेता है और सदा

विष्णुलोके निवास करता है। (अध्याय ६३)

आशादशमी-श्रत-कथा एवं त्रत-विधान

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--पार्थ ! अब मैं आपसे

आशादशमी-ब्रत-कथा एवं उसके विधानका वर्णन कर रहा

हूँ। प्राचीन कालमें निषध देशमें नल नामके एक राजा थे।

उनके भाई पुष्करने द्यूतमें जब उन्हें पराजित कर दिया, तब

नल अपनी भार्या दमयत्तीके साथ राज्यसे बाहर चले गये । वे

प्रतिदिन एक वनसे दूसरे यनपे भ्रमण करते रहते थे, केवल

जलमात्रसे अपना जीवन-निर्वाह करते थे और जनशून्य

भयंकर बनॉमें घूमते रहते थे। एक बार राजाने वनमें स्वर्ण-सी

कान्तिवाले कुछ पश्षियोको देखा । उन्हें फकड़नेकी इच्छासे

जाने उनके ऊपर वस्त्र फैलाया, परंतु वे सभी उस यस्तको

लेकर आकाशमें उड़ गये। इससे राजा बड़े दुःखी हो गये।

ये दमयन्तीको गाद्‌ निद्रामे देखकर उसे उसी स्थितिमें छोड़कर

चले गये ।

देमयन्तीने निद्रासे उठकर देखा तो नलको न पाकर वह

उस घोर वनमें हाहाकार करते हुए रोने लगौ । महान्‌ दुःख और

शोकसे संतप्त होकर वह नलके दर्शनोकी इच्छसे इधर-उधर

भटकने लमी । इसी प्रकार कई दिन बीत गये और भटकते हुए

वह चेदिदेशमें पहुँची। वहाँ यह उन्मत्त-सी रहने लगी।

छोटे-छोटे शिशु उसे कौतुकवश घेरे रहते थे। किसी दिन

मनुष्योंसे घिरी हुई उसे चेदिदेशके राजाकी माताने देखा । उस

समय दमयन्ती चन्द्रमाकी रेखाके समान भूमिपर पड़ी हुई थी।

उसका मुखमष्डल प्रकाशित था। राजमाताने उसे अपने

भवने बुलाकर पूछा--“वरानने ! तुम कौन हो ?' इसपर

दमयन्तीने लज्जित होते हुए कहा--'मैं सैस्श्री हूँ। मैं न

किसीके चरण धोती हूँ और न किसीका उच्छिष्ट भक्षण करती

हूँ। यहाँ रहते हुए कोई मुझे प्राप्त करेगा तो वह आपके द्वारा

दण्डनीय होगा । देवि ! इस प्रतिज्ञाके साथ मैं यहाँ रह सकती

ह" राजमाताने कहा--'ठीक है ऐसा ही होगा।' तब

दमयन्तीने वहाँ रहना स्वीकार किया और इसी प्रकार कुछ

समय व्यतीत हुआ और फिर एक ब्राह्मण दमयन्तीको उसके

माता-पिताके घर ले आया। पर माता-पिता तथा भाइयोंका

स्नेह पानेपर भी पतिके बिना वह अत्यन्त दुःखी रहती थी।

एक बार दमयन्तीने एक श्रेष्ठ ब्राह्मणको बुलाकर उससे

पूछा-- हे ब्राह्मणदेवता ! आप कोई ऐसा दान एवं व्रते

बतलायें, जिससे मैरे पति मुझे प्राप्त हो जायै ।' इसपर उस

बुद्धिमान्‌ ब्राह्मणने कहा--'भद्ठे तुम मनोवाज्छित सिद्धि

प्रदान करनेवाले आशादशमी-बत्रतको करो।' तब दमयन्तीने

पुराणयेक्त उस दमन नामक पुरोहित ब्राह्मणके द्वारा ऐसा कहे

जानेपर आशादशमी-ब्रतका अनुष्ठान किया। उस व्रते

प्रभावसे दमयन्तीने अपने पतिको पुनः प्राप्त किया।

१.दवतारोषे दो पक्ष प्राप्त होते है, एके भगवान्‌ कृष्णक पूर्णतम भगवान्‌ मानकर केन्द्रमें रखा गया है और अन्यत्र उन्हें दस अवतारोंकि

भीतर हौ रख किया है। दोनों मत मान्य हैं, अतः संदेह नहीं करण चाहिये।

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