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ब्राह्मपवं ]

* गृहस्थाश्रममें धन एवं सत्रीकी पहला +

अस्यन्त छोटी (बोनी), वाचार तथा पिगल वर्णवाल्डी कन्यासे

विवाह नहीं करना चाहिये। नक्षत्र, वृक्ष, नदी, म्लेच्छ, पर्वत,

पश, साँप आदि और दासीके नामपर जिसका नाम हो तथा

डरावने नामवाली कन्यासे विवाह नहीं करना चाहिये। जिसके

सब अङ्ग ठीक हों, सुन्दर नाम हो, हँस या हाथीकी-सी गति हो,

जो सूक्ष्म रोम, केश और दीवा तथा कोमल्माज्री हो, ऐसी

कन्यासे खियाह करना उत्तम होता है । गौ तथा घन-घान्यादिसे

अत्यधिक समृद्ध होनेपर भी इन दस कुल्मेंमें विवाहका सम्बन्ध

स्थापित नहीं करना चाहिये--जो संस्कारोसे रहित हों, जिनमें

पुरुष-संतति न होती हो, जो वेदके पठन-पाठनसे रहित हों,

जिनमें स्त्ी-पुरुषोंके झरीरोंपर बहुत लंबे केश हों, जिनमें आर्श

(बवासीर), क्षय (राजयक्ष्मा), मन्दाग्रि, मिरगी, शेतं दाग

और कुष्ठ-जैसे रोग होते हं ।

ब्रह्माजीने ऋषियोंसे पुन: कहा---ये सब उत्तम लक्षण

जिस कन्यामें हों और जिसका आचरण भी अच्छा हो उस

कन्यासे विवाह करना चहिये। स््रीके लक्षणोंक्री अपेक्षा उसके

सदाचारको हौ अधिक प्रदास्त कहा गया है। जो स्त्री सुन्दर

शरीर तथा शुभ लक्षणोंसे युक्त भी है, कितु यदि वह

सदाचारसम्पन्न (उत्तम आचरणयुक्त) नहीं है तो वह प्ररास्त

नहीं मानी गयी है। अतः स्वियोमें आचरणकी मर्यादाकरे अवदय

देखना चाहिये! । ऐसे सल्लक्षणों तथा सदाचारसे सम्पन्न

सुकन्यासे विवाह करनेपर ऋद्धि, वृद्धि तथा सत्कीर्ति प्राप्त

होती है। (अध्याय ५)

[पि बज

गृहस्थाश्रे घन एवं स्त्रीकी महत्ता, धन-सम्पादन करनेकी आवइयकता तथा

समान कुलमें विवाह-सम्बन्धकी प्रशंसा

राजा शतानीकने सुपन्तु पुनिसे पूछा--भगवन्‌ !

स्बियोंके लक्षणोंको तो मैंने सुना, अब उनके सद्वृत्त

(सदाचार) को भी मैं सुनना चाहता हूँ, उसे आप बतलानेकी

कृपा करे ।

सुमन्तु मुनि जोले--महाबाहु शतानीक ! ब्रह्माजीने

ऋषियोंक्ा श्ि्योके सद्वृत्त भी बतत्ये हैं, उन्हे मै आपको

सुनाता हूँ, आप ध्यानपूर्वक सुने । जब ऋषियोनि स्ियोके

सद्ृतके विषयमे ब्रह्मजीसे प्रश्न किया तब ब्रह्माजी कहने

कगे मुनीधरो ! सर्वप्रथम गृहस्थाश्रमे प्रवेश करनेवात्त

व्यक्ति यथाविधि विद्याध्ययन करके सत्करमदरारा घनका

उपार्जन करे, तदनन्तर सुन्दर लक्षणेति युक्त और सुशील

कन्यसे शाखोक्त विधिसे विवाह करे । धनके बिना गृहस्थाश्रम

केवल विडम्बना है । इसलिये धन-सम्यादन करनेके अनन्तर

ही गृहस्थाश्रमे प्रवेश करना चाहिये । मनुष्यके लिये घोर

नरककी यातना सहनी अच्छी है, कितु घरमें क्षुघासे तड़पते

हुए स्त्री-पुत्रॉको देखना अच्छा नहीं है । फटे और मैले-कुचैले

वश पहने, अति दीन और भूखे खी-पुत्रॉको देखकर जिनका

हृदय विदीर्ण नहीं होता, चे वज़्के समान अति कठोर हैं।

१-लक्षणेष्य: धदासौ तु स्यौनौ सदयुतमुष्यते। सदसतयुक्ता या खी सा प्रधास्ता न च रक्षणैः ॥

उनके जीवनको घिक्कार है, उनके लिये तो मृत्यु ही परम उत्सव

है अर्थात्‌ ऐसे पुरुषका मर जाना ही श्रेष्ठ है । अतः स्त्रीग्रहण

करनेवाले अर्थहीन पुरुषके त्रिवर्ग - (धर्ष, अर्थ, क्ाप-)की

सिद्धि कहाँ सम्भव है ? वह स्त्रो-सुख न प्राप्त कर यातना हो

भोगता है । जैसे लीके बिना गृहस्थाश्रम नहीं हो सकता, उसी

प्रकार धन-विहीन व्यक्तियोको भी गृहस्थ बननेका अधिकार

नहीं है। कुछ लोग सतानको ही त्रिवर्गका साधन मानते है

अर्थात्‌ संतानसे ही धर्म, अर्थ और कामकी प्राप्ति होती है,

ऐसा समझते हैं; परंतु नीतिविशारदोंका यह अभिमत है कि

घन और उत्तम ख्री--ये दोनों त्रिवर्ग-साधनके हेतु हैं। धर्म

भी दो प्रकारका कहा गया है--इष्ट धर्म और पूर्तं धर्ष।

यज्ञादि करना इष्ट॒ धर्म है और बापी, कृप, तालाब आदि

बनवाना पूर्तं धर्म है। ये दोनों धनसे ही सम्पन्न होते हैं।

दरिद्रीके बन्धु भौ उससे लज्जा करते हैं और घनाकयके

अनेक बन्धु हो जाते हैं। घन ही त्रिवर्गका मूल है। घनवानपें

विद्या, कुल, दील अनेक उत्तम गुण आ जाते हैं और निर्धनमें

विद्यमान होते हुए भी ये गुण नष्ट हो जाते हैं। झाख, शिल्प,

कला और अन्य भी जितने कर्म हैं, उन सबका तथा धर्मका

(ब्राह्मपर्य ५। ११०)

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