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# पुराणं परमं पुण्य भविष्यं सर्वसौर्वदप्‌ +

{ संक्षिप्त भविष्यपुरागाङ्क

था। मन्दराचलके वैगसे भ्रमण करनेके कारण रगड़से विष्णु

अगवान्‌के जो रोम उच्वड़कर समुद्रमें गिरे चे, पुनः समुद्रकी

लहरोंद्वारा उछाले गये वे ही रोम हरित वर्णके सुन्दर एवं शुभ

दूवकि रूपमे उत्पन्न हुए। उसी दूर्बापर देवताओनि मन्थनसे

उत्पन्न अमृतका कुम्भ रखा, उससे जो अमृतके विन्दु गिरे,

उनके स्यर्शसे बह दूर्वा अजर-अमर हो गयी । वह देवताओंकि

लिये पवित्र तथा वन्य हई । देवताओनि भाद्रपदकी शुक्ला

अष्टमीको गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, खर्जुर, नारिकेल,

द्राक्षा, कपित्थ, नारेग, आभ्र, बीजपुर्‌, दाड़िम आदि फलों

तथा दही, अक्षत, माला आदिसे निम्न मन्द्राय उसका

पूजन किया--

स्व॑दुर्येऽमृतजन्पासि वन्दिता च सुरासुरैः ।

सौभाग्ये संततिं कृत्वा सर्वकार्यकरी भय ॥

यथा शाख्राप्रशाखाभिर्विस्तृतासि महीतले ।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले -- पार्थं ! अब आप समस्त

पापों तथा भयोके नाशक, धर्मप्रद और भगवान्‌ शैकरके

प्रीतिकारक मासिक कृष्णाष्टमी-त्रतोंके विधानका श्रवण कर ।

मर्गशोर्षं मासकौ कृष्णाष्टमौको उपवासके नियम ग्रहणकर

जितेन्द्रिय और ऋरोधरहित हो गुरुकी आज्ञानुसार उपवास करे ।

मध्याह्वके अनन्तर नदी आदिमे ्छनकर गन्ध, उत्तम पुष्प,

गुग्गुल धूप, दौप अनेक प्रकारके यैवेद्य तथा ताम्बूल आदि

उपचारोंसे शिवलिङ्गका पूजनकर काले तिलोंसे हवन करे ।

इस मासमे शैकरजीका पूजन करे और गोमूत्र-पानकर ग्रमे

भूमिपर शयन करे, इससे अतिरात्र-यज्ञका फल प्राप्त होता है ।

पौष मासक कृष्णाष्टमीको शम्भु नामसे महेश्वस्का पूजनकर

घृत प्राशन करनेसे याजपेय यज्ञका फल प्राप्त होता है। माघ

मासकी कृष्णाष्टमीको महेश्वर नामसे भगवान्‌ शंकरका

पूजनकर गोदुग्घ प्राशन करनेसे अनेक यज्ञॉका फल प्राप्त

होता है। फाल्गुन मासकी कृष्णाप्टमीमें महादेव नामसे उनका

पूजनकर तिल भक्षण करनेसे आठ राजसूय यज्ञोंका फल प्राप्त

तथा पमापि संतान देहि त्वमजरामरे ॥

(उत्तरपर्व ५६। १२-१३)

देवताओंके साथ ही उनकी पलियां तथा अप्सराओने भी

उसका पूजन किया। मर्स्यलोकमें वेदबती, सीता, दमयन्ती

आदि रिक््योंके द्वारा भी सौभाग्यदायिनी यह दर्वा पूजित

(वन्दित) हुई और सभीने अपना-अपना अभीष्ट प्राप्त किया ।

जो भी नारी खानकर शुद्ध वस्त्र धारणकर दूर्वाका पूजन कर

तिलपिष्ट, गोधूम और सप्तधान्य आदिका दानकर ब्राह्मणको

भोजन कराती है और श्रद्धासे इस पुण्य तथा संतानकारक'

दूर्वाष्टमी-त्तको करती है वह पत्र, सौभाग्व--घन आदि सभी

पदार्थोंको प्राप्तकर बहुत कालतक संसारमें सुख भोगकर

अन्तम अपने पतिसहित स्वर्गमें जाती है और प्रलयपर्यन्त वहाँ

निवास करती है तथा देवताओंके द्वारा आनन्दित होती है।

(अध्याय ५६)

होता है। चैत्र मासकी कृष्णाष्टमीमें स्थाणु नामसे शिवका

पूजनकर यवका भोजन करनेसे अश्वमेघ यज्ञका फल मिलता

है। वैशाख मासकी कृष्णाष्टरमीमें शिव नामसे इनका पूजनकर

सत्रिमें कुशोदक-पान करनेसे दस पुरुषमेध यज्ञोकय फल

मिलता है | ज्येष्ठ मासकी कृष्णाष्टमी पशुपति नामसे भगवान्‌

शंकरका पूजनकर गोश्रृंगजलका पान करनेसे लाख गोदानका

फल मिलता है। आपाढ़ मासकी कृष्णाष्टमीमें उग्र नामसे

शौकरका पूजनकर गोमय प्राशन करनेवाला दस लाख वर्षसे

भी अधिक समयतक रुद्रलोकमें निवास करता है। श्रावण

मासकी कृष्णाष्टमी शर्वं नामसे भगवान्‌ शैकरकी पूजाकर

रात्रिमं अर्कं प्राशन करनेसे बहुत-सा सुवर्ण-दान किये

जानेवाले यज्ञका फल मिलता है । भाद्रपद मासके कृष्णाष्टमीमें

ज्यम्बक नामसे इनकी पूजाकर एवं जिल्वपक्रका भक्षण करनेसे

अन्न-दानका फल मिलता है। आशधिन मासकी कृष्णाष्टमी

भव नामसे भगवान्‌ शंकरका यजनकर तण्डुलोदकका पान

करतेसे सौ पुण्डरीक यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। इसी प्रकार

१-यह श्रीकृषण्जन्माष्टमीसे भिन्न जशिवोपास्नाका एक मुख्य अ्गभूत त है। इसकी महिमा तथा अनुष्ठान-विधिका वर्णन मल्पपुराण, अध्याय

५६, नारदपुराण, सौरपुरण १४ । १-३६, ब्रत-कल्पट्टुम आदिमे बहुत विस्तारसे है। विशेष जानक्क्रीके लिये उन्हें भी देखना चाहिये। ज्योतिषग्रन्थों

और पुराणोके अनुसार अष्टमी ठिपिके स्वामी शिव ही हैं। अतः आयौ तथा चतुर्दशोक्रो उनकी उपासना विशेष कल्याणकारिणी होती है।

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