» पुराणं परम॑ पुण्य भविष्यं सर्वसौख्यदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराण
-त्रतकी विधि
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--राजन् ! अब मैं एक दूसरी
सप्तमीका वर्णन कर रहा हूँ, वह शुभसप्तमी कहलाती है।
इसमें उपवासकर व्यक्ति रोग, शोक तथा दुःखोंसे मुक्त हो
जाता है। इस पुण्यप्रद व्रतमे आश्विन मासे (शुक्ल पक्षक
सप्तमी तिथिको) सान करके पवित्र हो ब्राह्मणोंद्रारा
स्वस्तियाचने कराये । तदनन्तर गन्ध, माल्य तथा अनुलेपनादिसे
भक्तिपूर्वक कपिला गौका निम्नलिखित मनत्रसे पूजन करे--
नमामि सूर्यसम्भूतामशेषभुवनालयाम् ॥
त्वामहं शुभकल्याणशरीरां सर्वसिद्धये ।
(उत्तरपर्व ५१॥ ३-४)
"देवि ! आप सूर्यसे उत्पन्न हुई हैं और सम्पूर्ण लोकोकी
आश्रयदात्री हैं, आपका शरीर सुशोभन मङ्गलोसे युक्त है,
आपको मैं समस्त सिद्धियोंकी प्राप्तिके निमित्त नमस्कार
करता हूँ।'
तत्पश्चात् ताम्रपात्रमें एक सेर तिल रखकर उसपर
वृषभक स्वर्ण-प्रतिमा स्थापित करें और उसकी वस्व, माल्य,
गुड़ आदिसे पूजा करे । सार्यकालमें 'अर्थमा प्रीयताम' यह
कहकर सब सामग्री भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको निवेदित करे ।
र्रिमे पञ्चगच्यका प्राशन करे तथा भूमिपर ही मात्सर्यरहित
होकर शयन करे प्रातः भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको पूजा आदिसे
संतुष्ट करे। प्रत्येक मासम दो वख, स्वर्णमय वृषभ और गौ
आदिका पूजनपूर्वक दान करे । सैवत्सरके अन्तमें ईख, गुड़,
कसर, पात्र, आसन, गदा, तकिया आदिसे समन्विते शय्या,
एक सेर तिलसे पूर्ण ताम्र-पात्र, सौवर्णं वृषभ “विश्वात्मा
प्रीयताम्" कहकर वेदज्ञ ब्राह्मणक दान करे । इस विधिसे
शुभसप्तमी -त्रत करनेवाला व्यक्ति जन्म-जन्ममे विमल कीर्ति
एवं श्री प्राप्त करता है ओर देवलोकमें पूजित तथा प्रलयपर्यन्त
गुणाधिप होता है। एक कल्पके अनन्तर वह पृथ्वीपर जन्म
लेकर सातो ट्रीपॉंका चक्रवर्ती सम्राद् होता है। यह पुण्यदायिनी
शुभ-सप्तमी सहस्नो ब्रह्महत्या और सैकड़ों भरणहत्या आदि
पापोंका नाश करती है। इस शुभ-सप्तमीके माहात्यको जो
पढ़ता है अथवा क्षणभर भी सुनता है, वह शरीर छूटनेपर
विद्याधरोंका अधिपति होता है'।
(अध्याय ५१)
सप्तमी-सत्रपनत्रत और उसकी विधि
महाराज युथ्िषप्ठिरने पूछा--प्रभो! मनुष्यको अपने
मनमें उद्धृत उद्वे तथा खेद-खिन्नता और अपनी दरिद्रताकी
निवृत्तिक लिये अद्भुत'- शान्तिके निमित्त कौन-सा धर्म-कृत्य
करना चाहिये ? मृतवत्सा ख्रीको (जिसके बच्चे पैदा होकर मर
जाते हैं) अपनी संततिकी रक्षा और दुस्वप्रादिकी शान्तिके
लिये क्था करना चाहिये ?
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--राजन् ! पूर्वजन्मके पाप
इस जन्मे रोग, दुर्गति तथा इष्टजनोंकी मृत्युके रूपमे फलिते
होते है । उनके विनाशक लिये मै कल्याणकारी सप्तमी-स््रपन
नामक ब्रतका वर्णन कर रहा हूँ, यह लोगोंकी पीड़ाका विनाश
करनेवाला है। जहाँ दुधमुँहे शिशुओं, वृद्धो, आतुरो ओर
नवयुवकोंकी आकस्मिक मृत्यु होती देखी जाती है, वहाँ उसकी
शान्तिके लिये इस “मृतबत्साभिषेक” को बतला रहा हूँ।
यह समस्त अद्भुत उत्पातो, उद्वेगो ओर चित्त-भ्रमोका भी
विनाशक है।
यराह-कल्पके यैवस्वत मन्वत्तरमें सत्ययुगमें हैहयवंशीय
क्षत्रियोंके कुकी शोभा बढ़ानेबाला कृतवीर्य नामक एक राजा
हुआ था। उसने सतहत्तर हजार वर्षतक धर्म और नीतिपूर्वक
समस्त प्रजाओका पालन किया। उसके सौ पुत्र थे, जो
च्यवनपुनिके शापसे दण्ध हो गये । फिर रजाने भगवान् सूर्यकी
विधिपूर्वक उपासना प्रारम्भ की। कृतवीर्यके उपवास-ब्रत,
पूजा और स्तोत्रोंसे संतुष्ट होकर भगवान् सूर्यने उसे अपना
दर्कन दिया और कहा---'कृतवीर्य ! तुम्हें (कार्तवीर्य नामक)
एक सुन्दर एवै चिरायु पुत्र उत्पन्न होगा, कितु तुम्हें अपने पूर्वकृत
पापोंको विनष्ट करनेके लिये स्नपन-सप्तमी नामक व्रत करना
पड़ेगा। तुम्हारी मृतवत्सा पत्नीके जब पुत्र उत्पन्न हो जाय तो
१-भविष्यपुए्णका यह अध्याय फत्यपुरण (अध्याय ८०) में इसरो रूपमें प्राप्त होल है।
२-सामवेदीय 'अद्भुतआाह्मण' ( ताण्ड्य २६) तथा अधर्वपरिशिष्ट (७२) में अद्भुत-शाक्तिका विलारसे उल्लेख है।