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# पुराणै परै पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदप् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्कं
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वर्ज्यसप्तमी-ब्रत
महाराज युधिष्ठिरम कहा--भगवन् ! घन, सौख्य
तथा समस्त मनोवाड्छित कामनाओंकों प्रदान करनेवाली
किसी सप्तनीव्रतका आप वर्णन करें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--राजन् ! उत्ततायणके व्यतीत
हो जानेपर शुक्ल पक्षमें पुरुषवाच नक्षत्रमें आदित्यवारको
सप्तमी-तिथि-ब्त ग्रहण करे । धान, तिल, जौ, उड़द, मग गेहूँ,
मधु, निन्द भोजन, मैथुन, कांस्पपात्रमें भोजन, तैलपभ्यङग, जजन
और शिलापर पीसी हुई वस्तु--इन सबका षष्ठी तिथिको प्रयोग
न करे । इन पदार्थौकर पष्ठीके दिन परित्याग कर केवर चनाका
भोग करे और देवता, मुनि तथा पितर--इन सबका तर्पणकर
भगवान् सूर्यका पूजन के । घृतयुक्त तिल और जौका हवन
कर भगवान् सूर्यका ध्यान करता हुआ भूमिपर शयन करे ।
इस विधिसे जो एक वर्षतक त्रत करता है, वह अपने सभी
मनोयाभ्छित फलको प्राप्त कर लेता है । (अध्याय ४५५)
कुक्कट-पर्करी- व्रतकथा (सुक्ताभरण सप्तमीत्रत-कथा)
भगवान् श्रीकृष्ण दोले-- महागज युधिष्ठर !
एक बार महर्षि लोमङ मयु आये ओर वहाँ मेरे माता-
पिता--देवकी-वसुदेवने उनकी बड़ी श्रद्धासे आवभगत
की। फिर वे प्रेमसे बैठकर अनेक प्रकारकी कथाएँ कहने
लगे। उन्होंने उसी प्रसंगमें मेरी मातासे कहा--'देवकी !
कंसने तुम्हारे बहुतसे पुत्रॉकों मार डाला है, अतः तुम मृतबत्सा
एवं दुःखभागिनी बन गयी हो * इसी प्रकारसे प्राचीन कालमें
चन्द्रमुखी नामकी एक सुलक्षणा रानी भी मृतवत्सा एवं दुःखी
हो गयी थी । परंतु उसने एक ऐसे त्रतका अनुष्ठान किया ,
जिसके प्रभावसे वह जीवल्यत्रा हो गयी । इसलिये देवकी !
तुम भी उस व्रतके अनुष्ठानके प्रभावसे वैसी हो जाओगी,
इसमें संशय नहीं ।
माता देवकीने उनसे पूछा--महाराज ! वह चन्द्रमुखी
रानी कौन थी? उसने सौभाग्य और आरोम्यकी वृद्धि
करनेवाला कौन-सा तत किया धा ? जिसके कारण उसकी
संतान जीवित हो गयी। आप मुझे भी वह व्रत बतलानेकी
कृपा करें।
लोमझमुनि बोलछे--प्राचीन कालमें अयोध्यामें नहुष
नामके एक प्रसिद्ध राजा थे, उन्हींकी महारानीका नाम
चददरमुखी था। राजाके पुरोहितकी पत्नी मानमानिकासे रानी
अन्द्रमुखीकी बहुत प्रीति थी। एक दिन वे दोनों सखियाँ स्नान
करनेके लिये सरयू-तटपर गयो । उस समय नगस्की और भी
बहुत-सी सयां वहाँ खान करने आयी हुई थीं। उन सब
स्कियोने स्नानकर एक मण्डल बनाया और उसमें शिव-
पार्वतीकी प्रतिमा चित्रितकर गन्ध, पुष्प, अक्षत आदिसे
भक्तिपर्वक यथाविधि उनकी पूजा की । अनन्तर उन्हें प्रणामकर
जब वे सभी अपने घर जानेको उद्यत हुईं, तब महारानी
चन्द्रमुखी तथा पुरोहितकी स्त्री मानमानिकाने उनसे पूछा---
'देवियो ! तुमलोगोने यह किसकी और किस उद्देश्यसे पूजा
की है ?' इसपर वे कहने लगीं--'हमलोगोने भगवान् शिव
एवै भगवती पार्वतीकी पूजा की है और उनके प्रति आत्म-
समर्पण कर यह सुवर्णसूत्रमय धागा भी हाथमे धारण किया
है। दप सब जबतक प्राण रहेंगे, तबतक इसे धारण किये
रहेंगी और शिव-पार्वतीका पूजन भी किया करेंगी।' यह
सुनकर उन दोनोने भी यह व्रत करनेका निश्चय किया और वे
अपने घर आ गयीं तथा नियमसे ब्रत करने लगी । परंतु कुछ
समय बाद रानी चद्रमुखी प्रमादवश ब्रत करना भूल गयीं और
सूत्र भी न बाँध सकी। इस कारण मरनेके अनन्तर वह वानरी
हुई, पुरोहितकी स्नीका भी व्रत-भङ्गं हो गया, इसलिये मरकर
कह कुक्ुटी हुईं। उन योनियोमें भी उनकी मित्रता और
पूर्वजन्मकी स्मृतियाँ बनी रह ।
कुछ कालके अनन्तर दोनोंकी मृत्यु हो गयी । फिर रानी
चन्रमुखी तो मालव देशके पृथ्वीनाथ नामक राजाकी मुख्य
रानी और पुरोहित अप्निमीलकी सी मानमानिका उसी राजाके
पुरोहितकी पत्नी हुईं। यनीका नाम ईश्वरी और पुरोहितकी
स्वीका नाम भूषणा था। भूषणाको अपने पूर्वजन्मोकय ज्ञान था ।
उसके आठ उत्तम पुत्र हुए। परैतु रानी ईश्वरीको बहुत समयके
बाद एक पुत्र उत्पन्न हुआ, यह रोगग्रस्त रहता धा । इस कारण
थोड़े ही समय याद (नवं वर्ष) उसकी मृत्यु हो गयी। तब
दुःखी हो भूषणा अपनी सखी रानी ईधरीको आश्वासन देने