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» पुराणै परं पुण्यै भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ +

[ संक्षिप्त धविष्यपुराणाङ्क

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यथा विशोकं भवनं त्वयैवादित्य सर्वदा ।

तथा विशोकता मे स्यात्‌ त्वद्धक्तिर्जन्पजन्मनि ।

(उत्तरपर्व ३८ ॥ ७)

हे आदित्यदेव ! जैसे आपने अपना स्थान शोकसे रहित

बनाया है, वैसे ही मेरा भी भवन सदा शोकरहित हो तथा

जन्म-जन्ममे मेरी आपमें भक्ति बनी रहे ।'

इस विधिसे पूजनकर पष्टीको ब्राह्मणभोजन कराये ।

गोमूत्रका प्राशन करे । फिर गुड़, अन्न, उत्तम दो वस्र और

सुवर्णं ऋह्मणको प्रदान करे । सप्तमोको मौन होकर तेल और

लकणरहित भोजन करे और पुराण भी श्रवण करे । इस प्रकार

एक वर्षपर्यन्त दोनो पक्षोकी षषठीकः व्रतकर अन्तमे शुक्ल

सप्तमीको सुवर्ण -कमलयुक्त कलश, श्रेष्ठ सामग्रियोंसे युक्त

उत्तम शय्या और पयस्विनी कपिला गौ ब्राह्मणको दान करे ।

इस विधिसे कृपणता छोड़कर जो इस ब्रतकों करता है, वह

करोड़ों वर्स भी अधिक समयतक शोक, रोग, दुर्गति

आदिसे मुक्त रहता है । यदि किसी कामनासे यह व्रत किया

जाय तो उसकी वह कामना अवश्य पूर्ण होती है और यदि

निष्काम होकर व्रत करे तो उसे मोक्षकी प्राप्ति होती है । जो

इस शक-विनारिनी विशोक-षष्ठीका एक बार भी उपवास

करता है, वह कभी दुःखी नहीं होता और इन्द्रलोकमें निवास

करता है।

(अध्याय ३८)

दि ०

कपलवषष्ठी- (फलषष्ठी-) त्रत

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--राजन्‌ ! अब मै कमल-

षष्ठी नामक व्रत्को बतलाता हूँ, जिसमें उपवास करनेसे व्यक्ति

पापमुक्त होकर स्वर्गको प्राप्त करता है । मार्गशीर्ष मासक शुक्ल

पक्षकी पञ्चमौको नियतत्रत होकर षष्ठीको उपवास करे । कृष्ण

सप्तमीको सुवर्णकमल, सुवर्णफल तथा शर्कराके साथ कलश

ब्राह्मणको प्रदान करे । इसी विधिसे एक वर्षपर्यन्त दोनों पश्षॉमें

प्रत्येक षष्ठीको उपवास करे । धानु, अर्क, रवि, ब्रह्मा, सूर्य,

शुक्र, हरि, शिव, श्रीमान्‌, विभावसु, त्वष्टा तेथा वरुण--इन

बारह नामोसे क्रमशः बारह महीनोमि पूजन करे और "भानुम

प्रीयताम्‌, "अर्को मे प्रीयताम्‌ इस प्रकार प्रतिमास सप्तमीको

दान ओर षष्ठी-पूजन आदिके समय उच्चारण के । ब्रतके

अन्तमे ब्राह्मण-दम्पतिकी पूजाकर वस्त्र-आभूषण, शर्करापूर्ण

कलश और सुवर्ण-कमल तथा स्वर्णफल ब्राह्मणको देकर

निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर त्रत पूर्ण को--

यथा फलकरो मासस्स्वद्धक्तानां सदा रवे।

त़थानन्तफलावाप्तिरस्तु जन्मनि जचऊनि॥

(उत्तत्पर्व ३९। ११)

“हे सूर्यदेव ! जिस प्रकार आपके भक्तोके लिये यह

मास-ब्रत फलदायी होता है, उसी प्रकार मुझे भी जन्म-जन्ममें

अनन्त फलोंकी प्राप्ति होती रहे।'

इस अनन्त फल देनेवाली फल-षष्ठी-ज़तको जो करता

है, वह सुयपानादि सभी पापॉसे मुक्त हो सूर्यलोकमें सम्मानित

होता है और अपने आगे-पीछेकी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार

करता है। जो इसका माहात्म्य श्रवण करता है, वह भी

कल्याणका भागी होता है।'।

(अध्याय ३९)

कि:

मन्दारषष्ठी-त्रत

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--राजन्‌ ! अब मैं सभी करे तथा मन्दारका पुष्य धक्षण कर रात्रिम शयन करे । चष्ठीको

पापको दूर करनेवाले तथा समस्त कामनाओंको पूर्ण प्रातः उठकर खानादि करे तथा ताश्रपात्रमे काले तिलॉसे एक

करनेवाले मन्दारषषठी नामक व्रतका विधान बतलाता ह । व्रती अष्टदल कमल बनाये । उसपर हाथमे कमल लिये भगवान्‌

माघ मासके शुक्ल पक्षकी पञ्चमी तिथिको स्वल्प भोजन कर॒ सूर्यकी सुवर्णकी प्रतिमा स्थापित करे । आठ सोनेके

नियमपूर्वक रहे और षष्ठीकोे उपवास कं । ब्राह्मणॉंका पूजन अर्कपुष्पोंसे तथा गन्धादि उपचारोंसे अष्टदल-कमलके दलोमि

र 9 पाकं

१-मल्त्यपुएणके अध्याय ७६ मे फलसप्तमी नामसे इसी ब्रतका यर्णन हुआ है ।

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