ब्राह्मापर्व ]
» वेदाध्ययन-जिधि, ओकर तथा गायज्री-माहारुय «
देर
खोदते-खोदते जल मिः जाता है, उसी प्रकार सेवा-शुश्रूषा
करते-करते गुरुसे विद्या मिल जाती है। मुष्डन कराये हो,
जटाधारी हो अथया शझिस्री (बड़ी सिस््रसे युक्त) हो, चाहे
जैसा भी ब्रह्मचारी हो उसको गाँवमें रहते हुए सूर्योदय और
सूर्यास्त नहीं होना चाहिये। अर्थात् जलके तट अथवा निर्जन
स्थानपर जाकर दोनों संध्याओमें संध्या-वन्दन करना चाहिये।
जिसके सोते-सोते सूर्योदय अथवा सूर्यास्त हो जाय यह महान्
पापका भागी होता है और बिना प्रायश्चित्त (कृच्छनत) के
शुद्ध नहीं होता।
माता, पिता, भाई और आचार्यका विपत्तिमें भी अन्दर
न करे । आचार्य ब्रह्माकी मूर्ति हैं, पिता प्रजापतिकी, माता
पृथ्वीकी तथा भाई आत्ममूर्ति है। इसलिये इनका सदा आदर
करना चाहिये। प्राणियोंकी उत्पत्तिमें तथा पालन-पोषणमें
माता-पिताको जो क्लेश सहन करना पड़ता है, उस क्लेज्ञका
बदल वे सौ वेमि भी सेवा करके नहीं चुका पाते ' । इसलिये
माता-पिता और गुरुकी सेवा नित्य करनी चाहिये । इन तीनोंके
संतुष्ट हो जानेसे सब प्रकारके तपॉका फल प्राप्त हो जाता है,
इनकी शुश्रुषा हो परम तप कहा गया है। इन तीनोंकी आज्ञाके
बिना किसी अन्य धर्मका आचरण नहीं करना चाहिये। ये हो
तीनों लोक हैं, ये ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनो वेद हैं और
ये ही तीनों अग्रियाँ हैं। माता गार्हपत्य नामक अग्रि है, पिता
दक्षिणाप्रि-स्वकूप है और गुरु आहवनीय अग्नि है। जिसपर ये
तीनों प्रसन्न हो जायें, वह तीनों तरेकप विजय प्राप्त कर लेता
है और दीप्यमान होते हुए देवलोकमे देवताओकी भाँति सुख
भोग करता है।
त्रिषु तुष्टेपु चैतेषु प्रील्छोकाक्यते गृही।
दीप्यमानः स्ववपुषा देववद्दिवि मोदते ॥
पिताकी भक्तिसे इषहत्परेक, माताकी भक्तिसे मध्यलोक
और गुरुकी सेवासे इन्द्रलोक प्राप्त होता है। जो इन तीनोंकी
सेवा करता है, उसके सभी धर्म सफल हो जाते हैं और जो
इनका आदर नहीं करता, उसकी सभी क्रियाएँ निष्फल होती
है । जबतक ये तीनों जीवित रहते हैं, तबतक इनकी नित्य
सेवा-शुश्रूषा और इनका हित करना चाहिये। इन तीनोंकी
सेवा-शुश्रृूषारूपी धर्ममें पुर्षका सम्पूर्ण कर्तव्य पृ हो जाता
है, यही साक्षात् धर्म है, अन्य सभी उपधघर्म कहे गये हैं।
उत्तम विद्या अधम पुरुषे हो तो भी उससे ग्रहण कर
लेनी चाहिये। इसी प्रकार चाण्डाल्से भी पोक्षधर्मकी शिक्षा,
नीच कुलसे भी उत्तम खो, विषसे भी अमृत, यकस भी
सुन्दर उपदेशात्मक यात, शत्रुसे भौ सदाचार और अपवित्र
स्थानसे भी सुवर्ण ग्रहण कर लेना चाहिये । उत्तम स्त्री, रत्र,
विद्या, धर्म, शौच, सुभाषित तथा अनेक प्रकारके शिल्प
जहाँसे भो प्रा हो, ग्रहण कर केने चाहिये । गुरुके
इारीर-त्यागपर्यत्त जो गुल्की सेवा करता है, वह श्रेष्न
ब्रह्मल्लेकको प्राप्त करता है । पढ़नेके समय गुरुको कुछ देनेकी
इच्छ न करे, कितु पढ़नेके अनन्तर गुरुको आज्ञा पाकर भूमि,
सुवर्ण, गौ, घोड़ा, छत्र, उपानह, धान्य, झाक तथा वस आदि
अपनी झक्तिके अनुसार गुरु-दक्षिणाके रूपमे देने चाहिये ।
जब गुरूका देह्ात्त हो जाय, तब गुणवान् गुरुपुत्र, गुरुकी स्त्री
और गुरुके भाइयोंके साथ गुरुके समान ही व्यवहार करना
चाहिये । इस प्रकार जो अविच्छित्र-रूपसे ब्रह्मचारि-घर्मका
आचरण करता है, वह ब्रह्मल्थ्ेकको प्राप्त करता है ।
सुमन्तु मुनि पुनः वोले-हे राजन् ! इस प्रकार मैंने
ब्रह्मचारिधर्मक वर्णन किया । ब्राह्मणक उपनयन यसन्ते,
क्षत्रियका प्रीष्ममें और वैश्यका शरद् ऋतुमें प्रस्त माना गया
(प्व ४ । २०१). है। अव गृहस्थधर्मका वर्णन सुनें। (अध्याय ४)
कक
१-आच्छ्यो अहश्नो पूर्तिः पिता मूर्ति: प्रजापतेः । मात्तष्यधादितरर्तिभता स्याच्यूर्तिरात्यन: ॥
यन्यातापितरौ क्लेत्च॑सहेते सम्भवे नृणाम्।न तत्य स्ल्कृतिः दाक्या कर्तं वर्ानिरपि ॥
(आहापर्स ४ । १९८-१९६)
२-श्दधानः शै किद्यमाददीतावराटपि । अक्ष्यादषि षर धर्म स्यैरमरै दुष्कुल्मदपि॥
क्विपारप्यपृतते आके बात्पदपि सुभाषितम् । अमिरदपि सदुक्तमणेध्कटपि कद्नस् ॥
(ग्राह्मपर्व द । २०.०-२०८)