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उत्तरपर्व ]

» पञ्चाप्निसाधन नामक रम्भा-तृतीया तथा गोष्पद-सृतीयाजत «

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सभ्याम्रि और पाँचवें तेज:स्वरूप सूर्याप्रिका सेवन करो । इसके

बीच पूर्वको दिशाकी ओर मुखकर बैठ जाओ और मृगचर्म,

जटा, वल्कल आदि धारण कर चार भुजाओंवाली एवं सभी

अलंकारोंसे सुशेभित तथा कमलके ऊपर विराजमान भगवती

महासतीका ध्यान करों। पुत्रि! महालक्ष्मी, महाकाली,

महामाया, महामति, गङ्गा, यमुना, सिन्धु, शतद्रु, नर्मदा, महौ,

सरस्वती तथा बैतरणीके रूपय वे ही महासती सर्वत्र व्याप्त दै ।

अतः तुम उन्हींकी आराधना करो ।'

प्रभो! मैंने माताके द्वारा बतलायी गयी विधिसे श्रद्धा-

भत्तिपूर्वक रम्भा- (गौरी) ब्रत्का अनुष्ठान किया और उसी

ब्रतके प्रभावसे मैंने आपको प्राप्त कर लिया।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण पुनः बोले--कौन्तेय ! लोफामुद्राने

भी इस रम्भात्नतके आचरणसे महामुनि अगस्त्यक्ते प्राप्त किया

और वे संसारे पूजित हुई । जो कोई स्त्री-पुरुष इस रम्भात्नतको

करेगा, उसके कुलक वृद्धि होगी। उसे उत्तम संतति तथा

सम्पत्ति प्राप्त होगी। खियोको अखण्ड सौभाग्यकी तथा सम्पूर्ण

कामनाओंकों सिद्ध करनेवाले श्रेष्ठ गार्हस्थ्य-सुख्की प्राप्ति

होगी और जीवनके अन्तम उन्हें इच्छानुसार विष्णु एवं

शिवलोककी प्राप्ति होगी।

इस ब्रतका संक्षिप्त विधान इस प्रकार है--व्रतीको एक

सुन्दर मण्डप बनाकर उसे गन्ध-पुष्पादिसे सुवासित तथा

अलंकृत करना चाहिये। तदनन्तर मण्डपमें महादेवी रुद्राणीकी

यथाशक्ति स्वर्णादिसे निर्मित प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये और

गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा अनेक प्रकारके नैवेदयौसे उनकी

पूजा करनी चाहिये। देवीके सम्मुख सौभाग्याष्टक -- जौरा,

कड॒हुंड, अपूप, फूल, पवित्र निष्याव (सेम), नमक, चीनी

तथा गुड़ निवेदित करना चाहिये। पद्मासन लगाकर

सूर्यास्ततक देवीके सम्मुख बैठा रहे । अनन्तर रुद्राणीको प्रणाम

कर यह मन्त्र कहे--

वेदेषु सर्य्ाखरेषु दिवि भूमौ धरातले ।

दृष्टः श्रुतश्च बहुशो न शक्त्या रहितः दिवः ॥

त्वं शक्तिस्त्वं स्वधा स्वाहा त्वं सावित्री सरस्वती ।

पति देहि गृहं देहि वसु देहि नमोऽस्तु ते॥

(उक्तापर्थ १८ । २३-२४)

"समप वेदादि दानम, स्वर्गमे तथा पृथवो आदिमे कहो

भी यह कभी नहीं सुना गया है और न ऐसा देखा हो गया है

कि शिव शत्तिसे रहित हैं। हे पार्वती ! आप ही दाक्ति हैं, आप

ही स्वधा, स्वाहा, सावित्री और सरस्वती हैं। आप मुझे पति,

श्रेष्ठ गृह तथा धन प्रदान करें, आपको नमस्कार है।'

इस प्रकार पुनः-पुनः उन्हें प्रणाम करके देवीसे क्षमा-

प्रार्था करे। अनन्तर सपत्रीक यशञस्व्री ब्राह्मणकी सभी

उपकरणोंसे पूजा करके दान देना चाहिये । सुवासिनी स्त्रियोंको

नैवेद्य आदि प्रदान करना चाहिये। इस विधानसे सभी कार्य

सम्पन्न कर पाप-नादाके लिये क्षमा-प्रार्थना करें। अगले दिन

चतुर्थी ब्राह्मण -दम्पतिर्योको मधुर रसोंसे समन्वित भोजन

कराकर व्रत पूर्ण करना चाहिये ।

पार्थं ! भाद्रपद मासके शष पक्षकी तृतीया तथा चतुर्थौ

तिथिको प्रतिवर्ष गोष्पद-नामक व्रत करना चाहिये | खी अथवा

पुरुष प्रथम लानसे निवृत होकर अक्षत और पुष्पमाला,घूप,

चन्दन, पिष्टक (पीठी) आदिसे गौकी पूजा करे। उसके भूग

आदि सभी अङ्गौको अलंकृत करे । उन्हें भोजन कराकर तृप्त

कर दै । स्वयै तेर ओर लवण आदि क्षार वस्तुओंसे रहित जो

अग्निके द्वारा सिद्ध न किया गया हो उसका भोजन करे । वनकी

ओर जाती तथा लौटती गौ ओको उनकी तुष्टिके लिये ग्रास दे

और उन्हें निघ्न मन्त्रसे अर्घ्य प्रदान को--

माता शुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाधिः ।

श्र नु वोच॑ चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट ॥

(अः ८।१०६।६५)

तदनन्तर निम्न मन्ते गौकी प्रार्थना करे--

गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः ।

गावो में हदये सन्तु गवां मध्यै वसाम्यहम्‌ ॥

(उत्तरपर्व १९॥७)

पञ्चमीको क्रोधरदित होकर गायके दूध, दही, चावलका

पीठा, फल तथा शाकका भोजन करे। रात्रिमें संयल होकर

विश्राम करे। प्रातःकाल यथाशाक्ति स्वर्णीदिसे निर्मित गोष्पद

(गायका खुर) तथा गुड़से निर्मित गोवर्धन पर्वतकी पूजा कर

ब्राह्मणफो “गोखिन्दः प्रीयताम' ऐसा कहकर दान करे ।

अनन्तर अच्युतको प्रणाम करे।

इस ब्रतकों भक्तिपूर्वक करनेवाला व्रती सौभाग्य,

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