उत्तरपर्व ] * अज्ञोकत़्त तथा कस्वीरत्रतका माहात्म्य * २८७
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तिल्छकन्रतके माहात्म्ये चित्रलेखाका चरित्र
[ संवत्सर-प्रतिपदाका कृत्य ]
राजा युधिष्ठिरने पूछा-- भगवन् ! ब्रह्मा, विष्णु, शिव,
गौरी, गणपति, दुर्गा, सोम, अग्नि तथा सूर्य आदि देवताओंके
व्रत शास्म निर्दिष्ट हैं, उन ब्रतोंका वर्णन आप प्रतिपदादि
क्रमसे करें। जिस देवताकी जो तिथि है तथा जिस तिथिमें जो
कर्तव्य है, उसे आप पूरी तरह बतलायें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--महाराज ! चैत्र मासके शु
पक्षकी जो प्रतिपदा होती है, उस दिन स्री अथवा पुरुष नदी,
ताल्यव या घरपर खान कर देवता और पितरोंका तर्पण करे ।
फिर घर आकर आटेकी पुरुषाकोर संवत्सरकी मूर्ति बनाकर
चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि उपचारोंसे उसकी
पूजा करे । ऋतु तथा मासोंका उच्चारण करते हुए पूजन तथा
प्रणाम कर संकत्सरकी प्रार्थना करे ओर--' संवत्सरोऽसि
देवतयाऽक्गिरस्वद् धरुवः सीद ॥' (यजु २७। ४५) यह मन्त्र
पढ़कर वससे प्रतिमाको वेष्टित करे । तदनन्तर फल, पुष्प,
मोदक आदि नैवेद्य चढ़ाकर हाथ जोड़कर प्रार्थना
करे--'भगवन् ! आपके अनुग्रहसे मेरा वर्ष सुखपूर्वक
व्यतीत हो'।' यह कहकर यथाशक्ति ब्राह्मणको दक्षिणा दे
और उसी दिनसे आरम्भ कर ललाटकों नित्य चन्दनसे
अलेकृत करे । इस प्रकार स्त्री या पुरुष इस ब्रतके प्रभावसे
उत्तम फल प्राप्त करते हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, ग्रह, डाकिनी
ओर शत्र उसके मस्तकमें तिलक देखते ही भाग खड़े होते हैं ।
इस सम्बन्धे मैं एक इतिहास कहता हँ पूर्व कालमें
शत्रञ्जय नामके एक राजा थे और चित्रलेखा नामकी अत्यन्त
सदाचारिणी उनकी पत्नी थी। उसीने सर्वप्रथम ब्राह्मणोंसे
संकल्पपूर्वक इस ब्रतको ग्रहण किया था । इसके प्रभावसे
बहुत अवस्था यीतनेपर उनको एक पुत्र हुआ। उसके जच्मसे
उनको बहुत आनन्द प्राप्त हुआ। वह रानी सदा संवत्सरत्रत
किया करती और नित्य ही मस्तकमे तिरक लगाती । जो
उसको तिरस्कृत केकी इच्छसे उसके पास आता, वह
उसके तिलककों देखकर पराभूत-सरा हो जाता। कुछ समयके
बाद राजाको उन्मत्त हाथीने मार खात और उनका बालक भी
सिस्की पीड़ासे मर गया। तब रानी अति झोकाकुल हुई।
धर्मतजके किकर (यमदूत) उन्हें लेनेके लिये आये। उन्होंने
देखा कि तिरक लगाये चित्रलेखा रानी समोपे बैठी है।
उसको देखते ही वे उलटे लौट गये। यमदूतोंके चले जानेपर
राजा अपने पुत्रके साथ स्वस्थ हो गया और पूर्वकर्मानुसार शुभ
भोगोंका उपभोग करने लगा। महाराज ! इस परम उत्तम
त्तका पूर्वकालमें भगवान् शंकरने मुझे उपदेश किया था और
हमने आपको सुनाया। यह तिरूकत्रत समस्त दुःखोको
हरनेवाल्पर है ¦ इस ब्रतको जो भक्तिपूर्वक करता है, वह
चिरकाल्पर्यन्त संसारका सुख भोगकर अन्तमें ब्रह्मलोककों
प्राप्त होता है। (अध्याय ८)
अज्ञोकब्नत तथा करवीरब्रतका माहात्प्य
भगवान् श्रीकृष्णने कहा--महाराज ! आश्विन-
मासकी शुक्त प्रतिपदाको गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, सप्तधान्यसे
तथा फल, नास्किल, अनार, लद आदि अनेक प्रकारके
नैवेध्से मनोरम पल्लयोसे युक्त अशोक वृक्षका पूजन करनेसे
कभी शोक नहीं होता। अशोक वृश्चकी निप्रलिखित मन््रसे
आर्थना करे और उसे अर्ध्य प्रदान करे--
पितृश्रातृपतिश्रभ्रूश्वशुराणां तथैव
अज्ञोक झोकझमनो भव सर्वत्र नः कुरे ॥
(उत्तरपर्व ९।४)
'अज्ञोकव॒क्ष ! आप मेरे कुलमें पिता, भाई, पति, सास
तथा ससुर आदि सभीका दोक शमन करें।'
वच्नसे अशोक-वुक्षकरो छपेट कर पताक ओंसे अलंकृत
करे। इस ब्रतकों यदि स्त्री भक्तिपूर्वक करे तो वह दमयन्ती,
स्वाहा, वेदबती और सतीकी भाँति अपने पतिकी अति प्रिय हो
१-भाव॑स्त्वटससादेन चवै झुपदमस्तु॒में। (उत्तरपर्व ८। १०)