उक्तरपर्वं ]
+ विविध प्रकारके पापों एवं पुण्य-कर्मोंका फल +
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उनमें नमक लगाते हैं। कभी उनको उतारकर खौलते हुए
तेलमें डालते है, बहाँसे निकालकर विष्ठाके कृपमें उनको
डुबोते हैं, जिनमें कीड़े काट-काटकर खाते हैं, फिर मेद्, रुधिर,
पूय आदिके कुष्डोम उनको ढकेल देते हैं। जहाँ ल्परेहेकी
चॉंचवाले क्क और श्वान आदि जीव उनका मांस नोच-नोच
कर खाते हैं। कभी उनको तीक्ष्ण शूल्मेंमे पिरोते हैं।
अभक्ष्य-भक्षण और मिथ्या भाषण करनेवाली जिदह्वाको
बहुत दण्ड मिलता है। जो पुरुष माता, पिता और गुरुको
कठोर बचन बोलते हैं, उनके मुखमें जलते हुए अंगारे भर दिये
जाते हैं और घायोंमें नमक भरकर खौलता हुआ तेल डाल
दिया जाता है। जो अतिथिको अन्न-जल दिये बिना उसके
सम्मुख ही स्वयं भोजन करते हैं, वे इक्षुकी तरह कोल्हूमें पैर
जाते हैं तथा वे अस्तार वन नामक नरकमें जाते है ¦ इस
प्रकार अनेक क्लेज्ष भोगते रहनेपर भी उनके प्राण नहीं
निकलते। जिसने परनारीके साथ संग किया हो, यमदूत उसे
तप्र स्त्रेहेकी नारीसे आलिङ्गन कराते हैं और पर-पुरुषगामिनी
स््रौको ता लौह पुरुषसे छिपटाते हैं और कहते हैं कि "दे!
जिस प्रकार तुमने अपने पतिका परित्याग कर पर-पुरुषका
आलिङ्गन किया, उसी प्रकारसे इस ल्ह -पुरुषका भी
आलिङ्गन करो ।' जो पुरुष देवालय, बाग, कापी, कुप, मठ
आदिको नष्ट करते हैं और वहाँ रहकर मैथुन आदि अनेक
प्रकारके पाप करते हैं, यमदूत उनको अनेक प्रकारके यन्त्रे
पीडित करते हैं और वे जबतक चन्द्र-सूर्य हैं, तबतक नरककी
अग्निमें पड़े जलते रहते हैं। जो गुरुकी निन्दा श्रयण करते हैं,
उनके कानोंकों दण्ड मिलता है। इस प्रकार जिन-जिन
इन्द्रियोंसे मनुष्य पाप करते हैं, वे इन्द्रियां कष्ट पाती हैं। इस
प्रकारक अनेक घोर यातना पापी पुरुष सभी नस्कोंमें भोगते
हैं। इनका सौ वर्पोमि भी वर्णन नहीं हो सकता। जीव नरकोंमें
अनेक प्रकारकी दारुण व्यथा भोगते रहते हैं, परंतु उनके प्राण
नहीं निक्त ।
इससे भी अधिक दारुण यातनाएँ हैं, मृदुचित्त पुरुष
उनको सुनकर ही दहलने लगते है । पुत्र, भित्र, खी आदिके
लिये ऋणी अनेक प्रकारका पाप करता है, परंतु उस समय
कोई सहायता नहीं करता । केवल एकस्की ही वह दुःख
भोगता है और प्रलयपर्यन्त नरकमें पड़ा रहता है । यह धुव
सिद्धान्त रै कि अपना किया पाप स्वयं भोगना पड़ता है।
इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य शरीरको नश्वर जानकर लेझमात्र भी
पाप न करे, पापसे अवदय ही नरक भोगना पड़ता है । पापका
फल दु:ख है और नस्कसे बढ़कर अधिक दु:ख कहीं नहीं है ।
पापी मनुष्य नरकयासके अनन्तर फिर पृथ्वीपर जन्म लेते हैं।
वृश्च आदि अनेक प्रकारकी स्थावर योनियोंमें वे जन्म ग्रहण
करते हैं और अनेक कष्ट भोगते हैं। अनन्तर कीट, पतंग,
पक्षी, पशु आदि अनेक योगियोंमें जन्म छेते हुए अति दुर्लभ
मनुष्य-जन्म पाते हैं। स्वर्ग एवं मोक्ष देनेवाठे मनुष्य-जन्मको
पाकर ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे नरक न देखना पड़े ।
यह मनुष्य-योनि देवताओं तथा असुर्येके लिये भी अत्यन्त
दुर्लभ है। धर्मसे हो मनुष्यका जन्म मिलता है। मनुष्य-
जन्म पाकर उसे धर्मकी यूद्धि करनी चाहिये। जो अपने
कल्याणके लिये धर्मा पालन नहीं करता है, उसके समान
मूर्ख कौन होगा ?
यह देश सब दशमे उत्तम है। बहुत पुण्यसे प्राणीका
जन्म भारतवर्षमें होता है। इस देशमें जन्म पाकर जो अपने
कल्याणके लिये पुण्य करता है, वही बुद्धिमान् है। जिसने
ऐसा नहीं किया, उसने अपने आत्माके साथ कना की।
अबतक यह करीर स्वस्थ है, तबतक जो कुछ पुण्य बन सके
कह कर लेना चाहिये। बादमें कुछ भी नहीं हो सकता।
दिन-यतके बहाने नित्य आयुके ही अदा खण्डित हो रहे हैं।
फिर भी मनुष्योंकों बोध नहीं होता कि एक दिन मृत्यु आ
पहुँचेगी। यह तो किसीको भी निश्चय नहीं है कि किसकी मृत्यु
किस समयमे होगी, फिर मनुष्यको क्योकर धैर्य और सुख
मिलता है ? यह जानते हुए कि एक दिन इन सभी सामग्रियोंको
छोड़कर अकेले चले जायैंगे, फिर अपने हाथसे ही अपनी
सम्पत्ति सत्पात्रोंको क्यों नहीं बाँट देते ? मनुष्यके लिये दान ही
पाथेय अर्थात् रास्तेके लिये भोजन है। जो दान करते हैं, वे
सुखपूर्वक जाते हैं। दानहीन मार्गमे अनेक दुःख पाते हैं, भूखे
मरते जाते हैं। इन सब बातोंकों विचारकर पुण्य ही करना
१-आयुषः खच्डखण्डानि निपतन्ति तवाप्रतः । अहोरात्रापदेशोत. किये नावयुध्यसे ॥ (उतत्पर्व ६। १९९)