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* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

इस तरह विचार करनेपर मालूम होता है कि स्यम कोई सुख

नहीं है।

व्यक्ति मान-अपमानके द्वारा, युवावस्था-वृद्धावस्थाके

द्वार और संयोग-वियोगके द्वारा ग्रस्त है, तो फिर निर्विवाद

सुख कहाँ ? जो यौवनके कारण स्त्री-पुरुषोके शरीर परस्पर

प्रिय लगते हैं, वही वार्थक्यके कारण घृणित प्रतीत होते हैं।

वृद्ध हो जाने, शरीस्के कंपने और सभी अङ्गोकि जर्जर एवै

दिथिल हो जानेपर वह सभीको अग्रिय छूगता है। जो

युवावस्थाके बाद वार्थक्यमें अपनेमे भारी परिवर्तन और अपनी

शाक्तिहीनताको देखकर विरक्त नहीं होता--धर्म और

भगवानकी ओर प्रवृत्त नहीं होता, उससे बढ़कर मूर्ख कौन हो

सकता है ?

बुढ़ापेमें जब पुत्र-पौत्र, बान्धव, दुग़चारी नौकर आदि

अवज्ञा--उपेक्षा करते हैं, तब अत्यन्त दुःख होता है। बुढ़ापेमें

वह धर्म, अर्थ, काम तथा पोक्ष-सम्बन्धी कार्योंकों सम्पन्न

करनेमें असमर्थ रहता है। इसमें वात, पित्त आदिकी

विषमतासे अर्थात्‌ न्यूनता-अधिकता होनेसे अनेक प्रकारके

रोग होते रहते हैं। इसलिये यह शरीर रोगोंका घर है । ये दुःख

प्रायः सभीको समय-समयपर अनुभूत होते ही हैं, फिर उसमें

विशेष कहनेकी आवश्यकता ही क्या ?

वास्तवमें शरीरमें सैकड़ों मृत्युके स्थान हैं, जिनमें एक तो

साश्चत्‌ मृत्यु या काल है, दूसरे अन्य आने-जानेवाली भयंकर

आधि-व्याधियाँ हैं, जो आधी मृत्युके समान हैं। आने-

जानेवाली आधि-य्याधियाँ तो जप-तप एवं ओषध आदिसे

टल भी जाती हैं, परंतु काल---मृत्युका कोई उपाय नहीं है ।

रोग, सर्प, शाख, विष तथा अन्य घात करनेवाले बाघ, सिंह,

दस्यु आदि प्राणिवर्ग ये सब भी मृत्युके द्वार ही हैं। किंतु जब

रेग आदिके रूपमें साक्षात्‌ मृत्यु पहुँच जाती है तो देव-वैद्य

धन्वन्तरि भी कुछ नहीं कर पाते। औषध, त्र, मन्त्र, तप,

दान, रसायन, योग आदि भी कालसे ग्रस्त व्यक्तिकी रक्षा नहीं

कर सकते। सभी प्राणियोकि लिये मृत्युके समान न कोई रोग

है, न भय, न दुःख है और न कोई शौकर्का स्थान अर्थात्‌

केवल एकमात्र मृत्युसे ही सारे भय आदि आशंकाएँ हैं। मृत्यु

पुत्र, सी, मित्र. राज्य, ऐश्वर्य, धन आदि सबसे वियुक्त करा

देती है और बद्धमूल वैर भी मृत्युसे निवत्त हो जाते हैं।

पुरुषकी आयु सौ वर्षोकी कही गयी है, परंतु कोई अस्सी

वर्ष जीता है कोई सत्तर वर्ष । अन्य लोग अधिक-से-अधिक

साठ वर्षतक ही जीते हैं और बहुत-से तो इससे पहले ही मर

जाते हैं। पूर्वकर्मानुसार मनुष्यकी जितनी आयु निश्चित है,

उसका आधा समय तो रात्रि ही सोनेमें हर लेती है। बीस वर्ष

बाल्य और बुढ़ापेमें व्यर्थ चले जाते हैं। युवा-अवस्थामें

अनेक प्रकारकी चिन्ता ओर कामकी व्यथा रहती है। इसलिये

वह समय भी निरर्थक ही चला जाता है। इस प्रकार यह आयु

समाप्त हो जाती है और मृत्यु आ पहुँचती है। मरणके समय

जो दुःख होता है, उसकी कोई उपमा नहीं। हे मातः! हे

पितः ! हे कान्त ! आदि चिल्लाते व्यक्तिको भी मृत्यु वैसे ही

फ्कड़े ले जाती है, जैसे मेढकको सर्प पकड़ छेता है। व्याधिसे

पीड़ित व्यक्ति खाटपर पड़ा इधर-उधर हाथ-पैर पटकता रहता

है और साँस छेता रहता है। कभी खाटसे भूमिपर और कभी

भूमिसे खाटपर जाता है, परेतु कहीं चैन नहो मिलता । कण्ठपें

घर-घर शब्द होने लगता है। मुख सूख जाता है। शरीर मूत्र,

विष्ठा आदिसे लिप्त हो जाता है। प्यास लगनेपर जब वह पानी

माँगता है, तो दिया हुआ पानी भी कण्ठतक ही रह जाता है।

वाणी बंद हो जाती है, पड़ा-पड़ा चिन्ता करता रहता है कि मेरे

धनको कौन भोगेगा ? मेरे कुटुम्बकी रक्षा कौन करेगा ? इस

तरह अनेक प्रकारकी यातना भोगता हुआ मनुष्य मरता है और

जीव इस देहसे निकलते ही जोंकक् तरह दूसरे शरीरमें प्रविष्ट

हो जाता है।

मृत्युस भी अधिक दुःख विवेकी पुरुषोंकों याचना अर्थात्‌

माँगनेमें होता है। मृत्युम तो क्षणिक दुःख होता है, किंतु

याचनासे तो निरन्तर ही दुःख होता है। देखिये, भगवान्‌ विष्णु

भी बलिसे माँगते ही वामन (अत्यन्त छोटे) हो गये। फिर

और दूसरा है ही कौन जिसकी प्रतिष्ठा याचनासे न घटे । आदि,

मध्य और अन्तमें दुःखको ही परम्परा है। अज्ञानवश मनुष्य

दुःखोंको झेलता हुआ कभी आनन्द नहीं प्राप्त करता। बहुत

खये तो दुःख, थोड़ा खाये तो दुःख, किसी समय भी सुख

नहीं है। क्षुधा सब गरेगोंमें प्रबल है और चह अन्नरूपी

ओषधिके सेवनसे थोड़ी देरके लिये शान्त हो जाती है, परंतु

अन्न भी परम सुखका साधन नहीं है। प्रातः उठते ही मूत्र,

विष्ठा आदिकी बाधा, मध्याहमें क्षुघा-तृषाकी पीड़ा और पेट

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