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* पुराण परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू
सर्वश्रथम प्रणाम करना चाहिये । जो केवल गायत्री जानता हो,
पर झास्त्रकी मर्यादामें रहे वह सबसे उत्तम है, किंतु सभी
वेदादि झास्त्रोंको जानते हुए भी मर्यादामें न रहे और
भक्ष्याभक्ष्यका कुछ भो विचार न करे तथा सभी वस्तुको
बेचे, वह अधम है।
गुरुके आगे, शय्या अथवा आसनपर न बैठे। यदि
पहिलेसे बैठा हो तो गुरूको आते देख नीचे उतर जाय और
उनका अभिकादन करे । वृद्धजनोंको आने देख छोटोंकि प्राण
उच्छसित हो जाते हैं, इसलिये नम्नतापूर्वक खड़े होकर उन्हें
प्रणाम करनेसे वे प्राण पुनः अपने स्थानपर आ जाते हैं।
प्रतिदिन बड़ोंकी सेवा और उन्हें प्रणाम करनेवाले पुल्षके आयु,
विद्या, यज्ञ और बल---ये चारों निरन्तर बढ़ते रहते है--
अधभिवादनशीलस्थ॒ निस्य वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि स्प्यग्बर्धन्ते आयुः प्रज्ञा यदो बलम् ॥
(ग्राह्मपर्थ ४ । ५९)
अभिवादनके समय दूसरेकी खीको और जिससे किसी
प्रकारका सम्बन्ध न हो उसे भवती (आप), सुभगे
अथवा भगिनी (कहन) कहकर सम्बोधित करे । चाचा, मामा,
ससुर, ऋत्विक् ओर गु --इनको अपना नाम लेते हुए प्रणाम
करना चाहिये। मौसी, मामी, सास, बुआ (पिताकी वहन)
और गुरुकी पत्नी--ये सब्र मान्य एवं पूज्य हैं। बड़े भाईको
सकर्णा स्न (भाभी) का जो नित्य आदर करता है और उसे
माताके समान समझता है, वह विष्णुल्मेकको प्राप्त करता है।
पिताकी बहन, साताकी कहन और अपनी बड़ी बहन--ये
तीनों माताके समान ही हैं । फिर भी अपनी माता--इन सबकी
अपेक्षा श्रेष्ठ है। पुत्र, मित्र और भानजा (बहनक्ा लङ्का)
इनको अपने समान समझना चाहिये। धन-सम्पत्ति, बन्धु,
अवस्था, कर्म और विद्या--ये पायो महत्वके कारण है--
इनमें उत्तरोत्तर एकसे दूसरा बड़ा है अर्धात् विद्या सर्वश्रेष्ठ है।
वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विषा ` धवति पञ्चमी ।
एतानि पान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम् ॥
( बद्धपर्यं ४ ॥ ७०)
रथ आदि यानपर चढ़े हुए, अतिवृद्ध, योगी, भारयुक्त,
स्त्री, स्नातक (जिसका समावर्तन- संस्कार हो गया हो), राजा
और वर (दूल्हा) यदि सामनेसे आते हों तो इन्हें मार्ग पहले
देना चाहिये। ये सभी यदि एक साथ आते हों तो स्नातक और
गजा मान्य हैं। इन दोनोमेंसे भी स्नातक विशेष मान्य है' ।
जो ब्राह्मण जिष्यका उपनयन कराकर रहस्य (यज्ञ, विद्या
और उपनिषद्) तथा कल्पसहित वेदाध्ययन कराता है, उसे
आचार्य कहते हैं। ओ जीविकाके निमित येदका एक भाग
अया वेदाङ्गं पदाता है, वह उपाध्याय कहत्मता है। जो
निषेक अर्थात् गर्भाधानादि संस्करोको रोतिसे कराता है और
अन्नादिसे पोषण करता है, उस ब्राह्मणको गुरु कहते हैं। जो
अग्निष्टोम, अप्निहोत्र, पाक-यज्ञादि क्मोका वरण लेकर जिसके
निमित्त करता है, वह उसका ऋत्विक् कहस्मता है । जो पुरुष
वेद-ध्वनिसे दोनों कान भर देता है, उसे माता-पिताके समान
समझकर उससे कभी द्वेष नहीं करना चाहिये।
उपाध्यायसे दस गुना गौरव आचार्यका और आचार्यसे सौ
गुना पिताक तथा पितासे हजार गुना गौरव माताका होता है --
(ब्राह्मर्थ ४ ॥ ७९)
जन्म देनेवाला और वेद पढ़ानेयाला--ये दोनों पिता है,
किंतु इनमें भी वेदाध्ययन करानेवात्पर श्रेष्ठ है, क्योंकि
ब्राह्मणक मुख्य जन्म तो वेद पढ़नेसे हो होता है। इसलिये
उपाध्याय आदि जितने पूज्य हैं, उनमें सबसे अधिक गौरव
महागुरुका ही होता है।
राजा झत्तानीकने पूछा--हे मुने ! आपने उपाध्याय
आदिके लक्षण बताये, अब महागुरु किसे कहते हैं ? यह भी
बतानेकी कृपा करें।
सुमन्तु मुनि खोरे-- राजन् ! जे ब्राह्मण जयोपजीवो हो
महाभारत (भगवान् श्रीकृष्ण-द्रैपायन व्यासद्वाय रचित
महाभारत जो पञ्चम वेदके नामसे भी विख्यात है) तथा श्रौत
१-चक्रिणो दकमीस्थस्य शेग्त्गों सारिण: खियां: ।खातकस्य तु राञ्ज पन्या देयो चास्य च॥
शष्ठ समाग त पृन्पौ स्थातकपार्थिलों ! क्यो रकाशपे राजन् स्वार्के नृपमानभाक् ॥
(आह्रर्क्क # । ०२-५३)