ॐ श्रीपरमात्पने नमः
उत्तरपर्व
महाराज युधिष्ठिरके पास व्यासादि महर्षियोंका आगमन एवं उनसे
उपदेश करनेके लिये युधिष्ठिरकी प्रार्थना
कल्याणानि ददातु वो गणापतिर्यस्मिन्नतुष्टे सति
क्षोदीयस्यपि कर्मणि प्रभवितुं ब्रह्मापि जिह्यायते ।
यश्चरणारविन्दमसकृत्सौ भाग्य भाग्योदयै
स्तेनैषा जगति प्रसिद्धिमगमददेलेन्द्रलक्ष्मीरपि ॥
"जिनकी प्रसन्नताके विना ब्रह्मा भी एक क्षुद्रकार्यका
सम्पादन नहीं कर सकते और जिनके चरणोंके एक बार
आश्रय लेनेसे देवेदद्रका भाग्य चमक उठा तथा उन्हें अखष्ड
राजलक्ष्मीकी प्राप्ति हो गयी, वे भगवान् गणपतिदेव आप-
ल्त्रेगॉका कल्याण करें। जो ब्रहणके जिह्नाग्न-भागपर निरन्तर
सिंहासनासीन रहती हैं और जिनके चरणनखको चन्द्रिकासे
प्रकाशित होकर शाब्दबहाका समुद्र विद्रानेकि हदयपर
नृत्य करता है, ये भगवती सरस्वती आप सबका अनन्त
कल्याण करें।'
भगवान् शेकरका ध्यान कर, भगवान् (विष्णु) कृष्णकी
स्तुति कर और ब्रह्माजीको नमस्कार कर तथा सूर्यदेव एवं
अग्रिदेवको प्रणाम कर इस ग्रन्थका वाचन करना चाहिये'।
एक बार धर्मके पुत्र धर्मवेत्ता महाराज युधिष्ठिरको
नारद आदि श्रेष्ठ ऋषिगण पधारे ।
उन महान् तपस्वौ एवं वेदयेदाङ्गपारेगत ऋषियोंकों
देखकर भक्तिमान् राजा युधिष्ठिरने अपने भाइयोंके साथ
प्रसत्रचित्त हो सिंहासनसे उठकर भगवान् श्रीकृष्ण तथा
पुरोहित धौम्यकों आगे कर उनका अभिवादन किया और
आचमन एवं पाद्यादिसे उनकी पूजाकर आसन प्रदान किया।
उन तपस्वियोंके बैठनेपर विनयसे अवनत हो महाराज
युधिष्ठिरे श्रीवेदव्यासजीसे कहा--
"भगवन् ! आपके प्रसादसे मैंने यह महान् राज्य प्राप्त
किया तथा दुर्योधनादिको परास्त किया। कितु जैसे रोगीको
सुख प्राप्त होनेपर भी वह सुख उसके लिये सुखकर नहीं होता,
वैसे हौ अपने बन्धु-बान्धवॉको मारकर यह राज्य-सुख मुझे
प्रिय नहीं छग रहा है। जो आनन्द बनमें निवास करते हुए
कन्द-मृल तथा फल्मेंके भक्षणसे प्राप्त होता है, वह सुख
झात्रुओंकों जीतकर सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य प्राप्त करनेपर भी नहीं
होता। जो भीष्मपितामह हमारे गुरु, बन्धु, रक्षक, कल्याण
और कवचस्वरूप थे, उन्हें भी मुझ-जैसे पापीने ग़ज्यके
स्मेभसे मार डाला । मैंने बहुत विवेकशून्य कार्य किया है। मेरा
मन पाप-पडुमें लि हो गया है। भगवन् ! आप कृपाकर
अपने ज्ञानरूपी जसे मेरे अज्ञान तथा पाप-पङ्कको धोकर
सर्वथा निर्मल बना दीजिये और अपने प्रज्ञारूपी दीपकसे मेरा
धर्मरूपी मार्ग प्रास्त कीजिये। धर्मके संरक्षक ये मुनिगण
कृपाकर यहाँ आये हुए हैं। गङ्गापत्र महाराज भीष्यपितामहसे
मैने अर्थशास्त्र, धर्मशासत्र और मोक्षशास्त्रका विस्तारसे श्रवण
किया है। उन शान्तनुपुत्र भीष्यके स्वर्गल्येक चले जानेपर
अब श्रीकृष्ण और आप ही मैत्री एवं बन्धुताके कारण मेरे
मार्गदर्शक हैं।'
व्यासजी बोले--राजन्! आपको करने योग्य सभी
बातें मैंने, पितामह भीष्मे, महर्षि मार्कण्डेय, धौम्य और
महामुनि लोमशे बता दी हैं। आप धर्मज्ञ, गुणी, मेधावी तथा
धीमान् पुरुषोंके समान हैं, धर्म और अधर्मके निश्चयमें कोई भी
बात आपको अज्ञात नहीं है। हषीकेदा भगवान् श्रीकृष्णके
यहाँ उपस्थित रहते हुए धर्मका उपदेश करनेका साहस कौन
कर सकता है? क्योंकि ये ही संसारकी सृष्टि, स्थिति तथा
पालन करते हैं एवै प्रस्यक्षद्ञी है । अतः ये ही आपको उपदेश
करेंगे। इतना कहकर तथा पाण्डवॉकी पूजा ग्रहणकर
बादरायण व्यासजी तपोवन चले गये।
(अध्याय १)
१-दियं ध्यात्या हरि स्तुत्वा परणम्य परमेषप्टिनम्।चित्रभानुं थ भानु च नत्वा ग्रन्थमुदीस्येत् ॥ (उत्तापं १।७)