Home
← पिछला
अगला →

प्रतिसर्गपर्व, तृतीय खण्ड ]

* देशराज एवं क्त्सराज आदि राजाओंका आविर्भाव +

२७५

वर्षतक राज्य किया और अन्तम स्वर्गलोक प्राप्त किया।

उन्होंने देश-मर्यादाका स्थापन किया। विश्यगिरि और

हिमालयके मध्यमे आर्यावर्तकी पुष्यभूमि है, वहाँ आर्यलोग

रहते हैं।

कै

देशराज एवं वत्सराज आदि राजाओंका आविभवि

सूतजीने कहा - भोजराजके स्वगरिहणके पश्चात्‌ उनके

शमे सात जा हुए, पर वे सभी अल्पायु, मन्दबुद्धि ओर

अल्पतेजस्वी हुए तथा तीन सौ वर्धके भीतर ही मर गये । उनके

राज्यकालमें पृश्वीपर छोटे-छोटे अनेक राज हुए। वीरसिंह

नामके सातवें राजाके वैशमें तीन राजा हुए, जो दो सौ यर्षके

भीतर ही मर गये। दसवां जो गंगासिंह नामका राजा हुआ,

उसने कल्पक्षेत्रमें धर्मपूर्वक अपना राज्य चलाया । अन्तर्वेदीमें

कान्यकुब्जपर राजा जयचन््रका शासन धा । तोमरवंशमें उत्पन्न

अनङ्गपाल इन्द्रप्रस्थका राजा था। इस तरहसे गाँव और राष्ट्रमे

(जनपदो) में बहुतसे राजा हुए। अग्रिवेशका विस्तार बहुत

हुआ और उसमें बहुतसे बलवान्‌ राजा हुए। पूर्वमें

कपिलस्थान (गङ्गासागर), पञ्चिममे बाह्लीक, उत्तरमें चीन देश

और दक्षिणमें सेतुबन्ध--इनके बीचमे साठ लाख भूपाल

प्रामपालक थे, जो महान्‌ बलयान्‌ थे । इनके गाज्यमें--प्रजाएँ,

अग्निहोत्र करनेवाली, गौ-ब्राह्मणका हित चाहनेवाली तथा

द्वापर युगके समान धर्म-कार्य करनेमें निपुण थीं। सर्वत्र द्वापर

युग ही मालूम पड़ता धा । घर-घरमें प्रचुर धने तथा जन-जनमें

धर्म विद्यमान था । प्रत्येक गाँवमें देवताओंके मन्दिर थे ।

देश-देशमें यज्ञ होते थे । म्लेच्छ भी आर्यं -घर्मका सभी तरहसे

पालन करते थे। द्वापस्के समान ऐसा धर्माचरण देखकर

कलिने भयभीत होकर म्लेच्छाके साथ नीलाचल पर्वतपर

जाकर हरिकी शरण ली । वहाँ उसने बारह वर्षतक तपश्चर्या

कीौ। इस ध्यानयोगात्मक तपश्चयसि उसे भगवान्‌

श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन हुआ । राधाके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णका

दर्शन पाकर उसने मनसे उनकी स्तुति की।

कलिने कहा--हे भगवन्‌ ! आप मेरे साष्टाङ्ग दण्डवत्‌

प्रणामको स्वीकार करें। मेरी रक्षा कीजिये । हे कृपानिधे ! मैं

आपकी शरणमे आया हूँ। आप सभी पापोका विनाश करते

है । सभी कालोंका निर्माण करनेवाले आप ही है । सत्ययुगमें

आप गौरवर्णके थे, त्रेतामें रक्तवर्ण, दरापरपे पौतवरणि ये । मेरे

समय (कलियुग) म आप कृष्ण-रूपके हैं। मेरे पुत्रोनि

म्लेच्छ होनेपर भी अब आर्य-धर्म स्वीकार किया है। मेरे

राज्यमें प्रत्येक घरमे द्यूत, मच्च, स्वर्ण, स्ी-हास्य आदि होना

चाहिये । परंतु अग्रिवंशमें पैदा हुए शत्रियोनि उनका विनाश कर

दिया है। हे जनार्दन ! मैं आपके चरण-कमलॉकी शरण हूँ।

कलियुगकी यह स्तुति सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुसकराकर

कहने लगे--

'कलिराज ! मैं तुम्हारी रक्षाके लिये अंशरूपमें

महावतीमें अवतीर्ण होऊँगा, वह मेरा अदा भूमिमें आकर उन

महाबली अप्रिवंशीय प्रजाओंका विनाश करेगा और

म्तेच्छवंशीय राजाओंकी प्रतिष्ठा करेगा ।' यह कहकर

भगवान्‌ अदृश्य हो गये और स्लेच्छाके साथ वह कलि

अत्यन्त प्रसन्न हो गया।

आगे चलकर इसी प्रकार सम्पूर्ण घटनाएँ घटित हुईं।

कौस्वांशोंकी पराजय और पाण्डवांशोंकी विजय हुई।

अन्तम पृथ्वीणज चौहानने वीरगति प्राप्त की तथा सहोड्ीन

(मोहम्मदगोरी) अपने दास कुतुकोड्ीनको यहाँका

शासन सौपकर यहाँसे बहुत-सा धन लूटकर अपने देश

चला गया'* ।

न्न्य

॥ प्रतिसर्गपर्व, तृतीय खण्ड सम्पूर्ण ॥

र +

# प्तिसर्पपर्वका चतुर्थ खण्ड परिशिष्टाडडयें दिया गया है।

← पिछला
अगला →