ज्राह्मपर्ण ]
* वेदाध्ययन-विधि, ओकार तथा गायत्री-पाहात्य +
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शिष्य गुरुका दाहिना चरण दाहिने हाथसे ओर वाया चरण
वायै हाथसे छूकर उनको प्रणाम करे । केदके पदृनेके समय
आदिमे ओर अन्तम ओंकारका उच्चारण न करनेसे सब निष्फल
हो जाता है। पहलेक्य पढ़ा हुआ विस्मृत हो जाता है और
आगेका विषय याद नहीं होता।
पूर्वदिज्ञामें अग्रभागवाले कुज्ञाके आसनपर बैठकर
पवित्री धारण करे तथा तीन बार प्राणायामसे पवित्र होकर
ऑकारका उच्चारण करे । प्रजापतिने तीनों वेदोंके प्रतिनिधिभूत
अकार, उकार और मकार--इन तीन वर्णोक्त्रे तीनों वेदसे
निकाल्म है, इनसे ओकर अनता है । भूर्भुवः स्वः--ये तीनों
व्याह्ृतियाँ और गायत्रीके तीन पाद तीनों वेदोंसे निकले हैं।
इसल्ये जो ब्राहमण ओंकार तथा व्याहतिपूर्वक त्रिपदा
गायप्रीका दोनों संध्याओंमि जप करता है, कह वेदपाठके
पुण्यक्रे प्राप्त करता है। और जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैङय अपनी
क्रियासे होन होते हैं, उनकी साधु पुरुषोमिं निन्दा होती है तथा
परस्थेकर्मे भी वै कल्याणके भागी नहीं होते, इसलिये अपने
कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये । प्रणव, तीन व्याइतियाँ और
त्रिपदा गायत्री--ये सब मिलकर जो सन्त्र (गायग्री-मन्त्र)
होता है, यह बरह्माका मुख है। जो इस गायत्री-मन्त्रका
श्रद्धा-भक्तिसे तोन वर्षतक नित्य नियमसे विधिपूर्वक जप
करता है, वह क्युकी तरह वेगसम्पन्न होकर आकाशके
स्वरूपको धारणकर ग्रह्मतत्त्कको प्राप्त करता है। एकाक्षर ॐ
परत्रह्म है, प्राणायाम परम तप है। सावि्री (गायक्री)से
अढ़कर कोई मन्त्र नहीं है और मौनसे सत्य यतना श्रेष्ठ है।
तपस्या, हवन, दान, यज्ञादि क्रियाएँ स्वरूपतः नादावान् हैं,
कितु प्रणव-स्वरूप एकाक्षर ऋ्रह्म ऑकारका कभी नाझ नहीं
होता। विधिवज्ञों (दर्ज-पौर्णास आदि) से जपयज्ञ
{प्रणवादि - जप) सदा हो श्रेष्ठ है। उपांशु-जप (जिस जपे
केवल ओठ और जीभ चलते हैं, शब्द न सुनायी पड़े) लाख
गुना और उपांशु-जपसे मानस-जप हजार गुना अधिक फल
देनेवाल होता है। जो पाकयज्ञ (पितृकर्म, हवन,
बलिवैश्वदेव) विधि - यज्ञके यरायर है, ये सभी जप-यज्ञकी
सोलह॒वीं कलाके बराबर भी नहीं है । ऋह्मणको सव सिद्धि
जपसे प्राप्त हो जाती है और कुछ करे या न करे, पर ब्राह्मणको
गायत्री-जप अवदय करना चाहिये।
सूर्योदयसे पूर्वं जब तारे दिखायी देते रहें तभीसे प्रातः-
संध्या आरम्भ कर देनी चाहिये और सूर्योदयपर्यन्त गायत्री-जप
करता रहे। इसी प्रकार सूर्यास्तसे पहिले ही सायं-संध्या
आर्थ करे और तारोंके दिखायी देनेतक गायत्री-जप करता
रहे। प्रातः-संध्यामें ख़ड़े होकर जप करनेसे रात्रिके पाप नष्ट
होते हैं और सायं-संध्याके समय बैठकर गायत्री-जप करनेसे
दिनके पाप नष्ट होते हैं। इसलिये दोनों कार्की संध्या
अवश्य करनी चाहिये। जो दोनों संध्याओंको नहीं करता उसे
सम्पूर्ण ट्विजातिके विहित कमते बहिष्कृत कर देना चाहिये।
रके बाहर एकान्त-स्थानमे, अरण्य या नदौ -सरोवर आदिके
तटपर गायत्रीका जप करनेसे बहुत त््रभ होता है । मन्त्रोंके
जप, संध्याके मन्त्र और जो अह -यज्ञादि नित्य-कर्म हैं इनके
मन्त्रोंके उद्यारणमें अनध्यायका विचार नहीं करना चाहिये
अर्थात् नित्यकर्ममें अनध्याय नहीं होता।
यज्ञोपयीतके अनन्तर समावर्तन-संस्कारतक दिष्य गुरुके
भ्म रे । भूमिपर शायन करे, सब प्रकारसे गुरुकी सेवा करे
और वेदाध्ययन करता रहे । सब कुछ जनते हुए भी जडवत्
रहे । आचार्यका पुत्र, सेवा करनेवाला, ज्ञान देनेवाला, धार्मिक,
पवित्र, विश्रासो, दक्तियान्, उदार, साधुस्वभाव तथा अपनी
जतिवाला-- ये दस अध्यापनके योग्य है । विना पूछे किसौसे
कुछ न कहें, अन्यायसे पृनेवालेको कुछ न बताये । जो
अनुचित ठंगसे पूछता है ओर जो अनुचित ढंगसे उत्तर देता
है, वे दोनों नरकमें जाते हैं और जगते सबके अप्रिय होते
हैं। जिसको पढ़ानेसे धर्म या अर्थकी प्राप्ति न हो और वह कुछ
सेवा-शुश्रूषा भी न करें, ऐसेको कभी न पढ़ाये, क्योंकि ऐसे
विद्यार्थीको दी गयी विद्या ऊषरमें बौज-वपनके समान निष्फल
होती है। विद्याके अधिष्ठातृ-देवताने ब्राह्मणसे कहा--'पै
तुम्हारी निधि हूँ. मेरी भत्यरेभाँति रक्षा करों, मुझे ब्राह्मणों
(अध्यापकों) के गुणोंमें दोष-बुद्धि रखनेवालेकों और द्वेष
करनेवालेको न देना, इससे मैं बलूवती रहूँगी। जो ब्राह्मण
जितेन्द्रि, पवित्र, ब्रह्मचारी और प्रमादसे रहित हो उसे
मुझे देना।'
जो गुरूकी आज्ञाके बिना वेद-शा भदिको स्वये
ग्रहण करता है, वह अति भयंकर रौरव नरकको प्रप्र होता है ।
जो स्तैकिक, वैदिक अथवा आध्यात्पिक ज्ञान दे, उसे