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अतिसर्गपर्व, द्वितीय खण्ड ]

+ सत्यनारायण-अतके प्रस॑गमे लकद्हारोकी कथा «

२६९१

विन्ध्यदेशके म्लेच्छगण उनके शत्रु हो गये । उस राजाका उन

म्लेच्छोंसे अस्न-शख्वोंद्रार भयानक युद्ध हुआ। उस युद्धमें

राजा चन्द्रचूडकी विशाल चतुरक्षिणी सेना अधिक नष्ट हुई,

कितु कूट-युद्धमे निपुण म्लेच्छोंकी सेनाकी क्षति बहुत कम

हुई। युद्धमें दम्भी म्लेच्छोंसे परास्त होकर राजा चन्द्रचूड अपना

गाष्ट्‌ छोड़कर अकेले ही वनम चले गये । तीर्थाटनके बहाने

इधर-उधर घूमते हुए वे काशौपुरीमे पहुँचे | वह्यं उन्होंने देखा

कि घर-घर सत्यनारायणकी पूजा हो रही है और यह काशी

नगरी द्वास्काके समान ही भव्य एवं समुद्धिशाली हो गयी है।

वहाँकी समृद्धि देखकर चन्द्रचूड विस्मित हो गये और

उन्होंने सदानन्द (शतानन्द) ब्राह्मणके द्वारा की गयौ

सत्वनारायण-पूजाकी प्रसिद्धि भी सुनी, जिसके अनुसरणसे

सभी शील एवं धर्मसे समृद्ध हो गये थे। रा चन्द्रचूड

भगवान्‌ सत्यनारायणक्ी पूजा करनेवाले ब्राह्मण सदानन्द

(शतानन्द) के पास गये और उनके चरणोंपर गिरकर उनसे

सत्यनारायण-पूजाकी विधि पूछी तथा अपने राज्यभ्रष्ट होनेकी

कथा भी बतलायी और कहा--'ब्रह्मन्‌ ! लक्ष्मीपति भगवान्‌

जनार्दन जिस ब्रतसे प्रसन्न होते दै, पापके नाश करनेवाले उस

ब्रतको बतलाकर आप मेरा उद्धार करें।'

सदानन्द (शतानन्द)ने कहा--गजन्‌ ! श्रीपति

भगवान्को प्रसन्न करनेवाला सत्यनारायण नामक एक श्रेष्ठ त्रत

है, जो समस्त दुःख-शोकादिका शापक, धन-धान्यका

प्रवर्धक, सौभाग्य और संततिका प्रदाता तथा सर्यत्र

विजय-प्रदायक है। राजन्‌ ! जिस किसी भी दिन प्रदोषकालमें

इनके पूजन आदिका आयोजन करना चाहिये। कदलीदलके

स्तम्भोमे मण्डित, तोरणोंसे अलंकृत एक मण्डपकी रचनाकर

उसमें पाँच कलशॉकी स्थापना करनी चाहिये और पाँच ध्वजाएँ,

भी लगानी चाहिये। व्रतीको चाहिये कि उस मण्डपके मध्यमें

ब्राह्मणोकि द्वारा एक रमणीय वेदिकाकी रचना करवाये | उसके

ऊपर स्वर्णसि मण्डित शिलारूप भगवान्‌ नारायण (शालग्राम)

को स्थापित कर प्रेम-भक्तिपूर्वक चन्दन, पुष्प आदि उपचारोंसे

उनकी पूजा करे। भगवान्‌का ध्यान करते हुए भूमिपर

शयनकर सात रात्रि व्यतीत करे ।

यह सुनकर राजा चनद्रचूढने काशीमें ही भगवान्‌

सत्यनारायणकी शीघ्र ही पूजा की। प्रसन्न होकर सात्रिमें

भगवानने राजाकों एक उत्तम तलवार प्रदान की । शत्रुओऑको

नष्ट करनेवाली तलवार प्राप्त कर राजा ब्राह्मणश्रेष्ठ सदानन्दको

प्रणाम कर अपने नगरे आ गये तथा छः हजार म्लेच्छ

दस्युओंकों मारकर उनसे अपार धन प्राप्त किया और नर्मदाके

मनोहर तटपर पुनः भगवान्‌ श्रीहरिकी पूजा की। वे राजा

प्रत्येक मासकी पूर्णिमाक प्रेम और भक्तिपूर्वक विधि-विधानसे

भगवान्‌ सत्यदेवी पूजा करने लगे। उस ब्रतके प्रभावसे वे

लाखों प्रामोकि अधिपति हो गये और सार वर्षतक राज्य करते

हुए अन्तम उन्होंने विष्णुलोकको प्राप्त किया । (अध्याय २६)

( सत्वनारायण-त्रत-कथाका तृतीय अध्याय }

सत्यनारायण-त्रतके अने लकड़॒हारोंकी कथा

सूतजी बोले--ऋषियो ! अव इस सम्यन्धमे सत्य-

नारायण-त्रतके आचरणसे कृतकृत्य हुए भिल्लोकौ कथा सुने ।

एक समयकी बात है, कुछ निषादगण क्रमे लकड़ियाँ

काटकर नगरमें लाकर बेचा करते थे। उनमेंसे कुछ निषाद

काशीपुरीमें लकड़ी बेचने आये। उन्हींमेंसे एक बहुत प्यासा

लकड़हाया किष्णुदास (शतानन्द) के आश्रममें गया। यहाँ

उसने जल पिया और देखा कि ऋह्मणलोग भगवानकी पूजा

कर रहे हैं। भिक्षुक शतानन्दका वैभव देखकर वह चकित हो

गया और सोचने लगा- इतने दरिद्र ब्राह्मणके पास यह

अपार वैभव कहाँसे आ गया ? इसे तो आजतक मैंने

अकिंचन ही देखा था। आज यह इतना महान्‌ धनी कैसे हो

गया ?' इसपर उसने पूंछा--'महाग़ज ! आपको यह ऐश्वर्य

कैसे प्राप्त हुआ और आपको निर्धनतासे मुक्ति कैसे मिली ?

यह बतानेका कष्ट करें, मैं सुनना चाहता हूँ।'

शतानन्दने कहा--भाई ! यह सब सत्यनारायणकी

आराधनाका फल है, उनकी आराधनासे क्या नहीं होता।

भगवान्‌ सत्यनारायणकी अनुकम्पाके बिना किंचित्‌ भी सुख

प्राप्त नहीं होता।

निषादने उनसे पूछा--महाराज ! सत्यनागयण

भगवान्‌का वया माहात्प्य है ? इस व्रतकी विधि क्या है ? आप

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