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* पुराण परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौ ख्यदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
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नायायणका पूजन करना चाहिये, विभो ! कृपाकर उसे भी आप
बताये । संसारके मोहित करनेवाले भगवान् नारायण मधुर
वाणीम बोले--“विप्रेत्र ! मेरी पूजामें बहुत अधिक धनकी
आवश्यकता नहीं, अनायास जो धन प्राप्त हो जाय, उसीसे
श्रद्धापूर्वक मेरा यजन करना चाहिये । जिस प्रकार मेरी स्तुतिसे,
स्मृतिसे ग्राह-अस्त गजेन्द्र, अजामिल संकटसे मुक्त हो गये,
इसी प्रकार इस ब्रतके आश्रयसे मनुष्य तत्काल क्लेशमुक्त हो
जाता है। इस ब्रतकी विधिको सुर्नें--
अभीष्ट कामनाकी सिद्धिके लिये पूजाकी सामग्री
एकत्रकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यनारायणकी पूजा करनी
चाहिये। सवा सेरके लगभग गोधूम-चूर्णमें दूध और शक्कर
मिलाकर, उस चूर्णक घृतसे युक्तकर हरिको निवेदित करना
चाहिये, यह भगवानूको अत्यन्त प्रिय है। पञ्चामृतके द्रा
भगवान् शालग्रामको खान कराकर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप,
नैवेध्ध तथा ताम्बूलादि उपचारोंसे मन्त्रोंड्राा उनकी
अर्चना करनी चाहिये। अनेक मिष्टान्न तथा भक्ष्य-भोज्य
पदार्थों एवं ऋतुकालोद्भूत विविध फलों तथा फूलोंसे भक्ति-
पूर्वक पूजा करनी चाहिये। फिर ब्राह्मणों तथा स्वजनोकि साथ
मेरी कथा, राजा (तुङ्गध्वज) के इतिहास, भीलॉकी और
वणिक् (साधु) की कथाको आदरपूर्यक श्रवण करना चाहिये ।
कथाके अनन्तर भक्तिपूर्वक सत्यदेवको प्रणामकर प्रसादका
वितरण करना चाहिये। तदनन्तर भोजन करना चाहिये। मेरी
प्रसन्नता द्रव्यादिसे नहीं, अपितु श्रद्धा-भक्तिसे ही होती है।
विप्रेद्ध ! इस प्रकार जो विधिपूर्वक पूजा करते हैं, वे
पुत्र-पौत्र तथा धन-सम्पत्तिसे युक्त होकर श्रेष्ठ भोगोका उपभोग
करते हैं और अन्तम मेरा सांनिध्य प्राप्त कर मेरे साथ
आनन्दपू्वक रहते हैं। वरती जो-जो कामना करता है, वह उसे
अवश्य ही प्राप्त हो जाती है।
इतना कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और ले ब्राह्मण
भी अत्यन्त प्रसन्न हो गये। मन-ही-मन उन्हें प्रणाम कर वे
भिक्षाके लिये नगस्की ओर चले गये और उन्होंने मनमें यह
निश्चय किया कि "आज भिक्षामें जो धन मुझे प्राप्त होगा, मैं
उससे भगवान् सत्यनारायणकी पूजा करूँगा।'
उस दिन अनायास बिना माँगे ही उन्हें प्रचुर धन प्राप्त
हो गया। वे आश्चर्यचकित हो अपने घर आये। उन्होंने सारा
कृक्तन्त अपनी धर्मपत्नीको बताया। उसने भी सत्यनारायणके
बत-पूजाका अनुमोदन किया । वह पतिकी आज्ञासे श्रद्धापूर्वक
आजारसे पूजाकी सभी सामग्रियॉँको ले आयी और अपने
बन्धु-बन्घवों तथा पड़ोसियोंको भगवान् सत्यनारायणकी
पूजाम सम्मिलित होनेके लिये बुला ले आयी। अनन्तर
शतानन्दने भक्तिपूर्वक भगवान्की पूजा कौ। कधाकी
समाप्तिपर प्रसन्न होकर उनकी कामनाओंको पूर्ण केके
उद्देश्यसे भक्तवत्सल भगवान् सत्यनारायणदेव प्रकट हो गये।
उनका दर्शनकर ब्राह्मण शतानन्दने भगवानसे इस लोकमें तथा
परलोकमें सुख तथा पराभक्तिकी याचना की और कहा-- हे
भगवन् ! आप मुझे अपना दास बना लें।' भगवान् भी
'तथास्तु' कहकर अन्तर्धान हो गये। यह देखकर कथामें आये
सभी जन अत्यन्त विस्मित हो गये और ब्राह्मण भी कृतकृत्य
हो गया। वे सभी भगवानको दण्डवत् प्रणामकर आदरपूर्वक
प्रसद् ग्रहणकर “यह ब्राह्मण धन्य है, धन्य है' इस प्रकार
कहते हुए अपने-अपने घर चले गये। तभीसे लोकमें यह
प्रचार हो गया कि भगवान् सत्यनारायणका बत अभीष्ट
क्रमनाओंकी सिद्धि प्रदान करनेवाला, वलेशनाशक और
भोग-मोक्षको प्रदान करनेवाला है । (अध्याय २५)
( सत्यनारायणत्रत-कथाका द्वितीय अध्याय ]
---क्कत 3-८
सत्यनारायणत्रत-कथापें राजा चनद्रचूडका आख्यान
सूतजी बोले--ऋषियो ! प्रचीन कलमे केदारखण्डके
मणिपूरक नामक नगरमे चन्रचूड़ नामक एक धार्मिक तथा
चन्योऽस््यद्च कृती
धन्यो भवोऽच सफलौ मम । काड्नोऽगोचरो यस्तवै
प्रजावत्सल राजा रहते थे। ये अत्यन्त शान्त-स्वभाव,
मृदुभाषी, धीर-प्रकृति तथा भगवान् नारायणके भक्त थे।
मम अत्यक्षमागतः: ॥
दि किं वर्णयाब्याहों न जाने कम्य ऋ फलम्| क्रियाहीकस्य मन्दस्व देहोज्ये फलवान् कृतः ॥
(परतिसर्गपर्व २। २५। १५-- १९)