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+ पुराण परम पुण्यं भविष्वं सर्वस्ौख्यदम्‌ + [ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडुू

रेष

अधर्ववेदकी तृप्ति होती है । ओ्टके मार्जनसे इतिहास और करें, परंतु पितृतीर्थले कभी भी आचमन नहीं करना चाहिये !

पुराणोकी तृप्ति होती है । मस्त्कमे अभिचेक करनेसे भगवान्‌ आचमनका जल इदयतक जानेसे ब्राह्मणकी; कण्टतक जानेसे

रद्र प्रसन्न होते है । शिखाके स्पर्ससे ऋषिगण, दोनों आँख्ोंकि

स्पर्शसे सूर्य, नासिकाके स्पर्शसे वायु, कानेकि स्पदसि दिशाएँ,

भुजाके स्पर्शसे यम, कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा अग्रिदेव तृप्त होते

हैं। नाभि और प्राणोंकी ग्रन्थियोंके स्पर्श करनेसे सभी तप्त हो

जाते हैं। पैर घोनेसे विष्णुभगवान्‌, भूमिमें जल छोड़नेसे

वासुकि आदि नाग तथा बीच जो जलबिन्दु गिरते हैं, उनसे

चार प्रकारके भूतग्रामकी तृप्ति होती है ।

अङ्गु और तर्जनीसे नेत्र, अन्भु्न तथा अनापिकासे

नासिका, अष्ट एवं मध्यमासे मुख, अङगु ओर्‌ कनिष्ठकासे

कान, सब अङ्गुलियोसे भुजा ओक, अब्भुछसे नाभिमण्डल तथा

सभी अङ्गुलियोसे सिरका स्पर्श करना चाहिये। अङ्गु

अभ्निरूप है, तर्जनी वायुरूप, मध्यमा प्रजापतिरूप, अनामिका

सूर्यरूप और कनिष्ठिका इन्द्ररूप है।*

इस विधिसे ब्राह्मणके आचमन करनेपर सम्पूर्ण जगत्‌,

देवता और लोक तृप्न हो जाते हैं। बराह्मण सदा पूजनीय है,

क्योकि वह सर्वदेवमय है।

ब्रह्मतीर्थ, प्राजापत्पतीर्थ अथवा देवतीर्थशे आचमन

क्षत्रियकी और बैज्यकी जलके प्राशनसे तथा शूद्रकी जलके

स्पर्शमात्रसे शुद्धि हो जाती है।

दाहिने हाथके नीचे और बायें कंघेषर यज्ञोपयीत रहनेसे

द्विज उपवीती (सव्य) कहत्मता है, इसके वित्म्रेम रहनेसे

अर्थात्‌ यज्ञोपवोतके दाहिने कंघेसे बायों ओर रहनेसे

प्राचोनावीती (अपसव्य) तथा गछेमें मात्प्रकी तरह यज्ञोपवीत

रहनेसे निवीती कहा जाता है।

येता, मृगछात्म, दण्ड, यज्ञोपवीत और कमप्डलु--

इनमें कोई भी चीज भग्र हो जाय तो उसे जलमें चिसर्जिति कर

मन्त्रोचारष्यपूर्वक दूसरा घारण करना चाहिये। उपयीती

(सव्य) होकर और दाहिने हाथको जानु अर्थात्‌ घुटनेके भीतर

रस्ककर जो ब्राह्मण आचमन करता है वह पवित्र हो जाता है।

ब्राह्मणके हाथकी रेखाओंको गङ्गा आदि नदियोंके समान

पवित्र समझना चाहिये और अब्लुल्योके जो पर्व हैं, वे

हिमालय आदि देवपर्यत माने जाते हैं। इसलिये ऋह्मणका

दाहिना हाथ सर्वदेवमय है और इस विधिसे आचमन

करनेवात् अन्‍्तमें स्पर्गस्त्रेकके परा करता है ` । ( अध्याय ३)

--9*- -

वेदाध्ययन-विधि, ओंकार तथा गायत्री-माहात्य, आचार्यादि-लक्षण,

ब्रह्मचारिधर्म-निरूपण, अभिवादन-विधि, सत्रातककी महिमामें

अड्डिरापुत्रका आख्यान,

सुपन्तु॒पुनिने कडा--राजन्‌ ब्राह्मणका केदान्त

(समावर्तन ) -संस्कार सोलहवे वर्षमे, क्षत्रियका कार्सवे वर्षमें

तथा वैरयकः पचीसवे वर्धे करना चाहिये । स्ियोकि संस्कार

अपन््रक करने चाहिये । केशान्त- स्कर होनेके अनन्तर चाहे

तो गुरु-गृहमें रहे अथवा अपने घरमे आकर विवाह कर

अग्निहोत्र ग्रहण करे । लि्योकि लिये मुख्य संस्कार विवाह है ।

राजन्‌ ! यहाँतक मैंने उपनयनका विधान बतलाया । अब

माता-पिता और गुरुकी महिमा

आगेका कर्म बताते हैं, उसे आप सुने । हिष्यकः यज्ञोपवीत

कर गुरु पहले उसको परौच, आचार, सैध्योपासन, अग्निकार्य

सिखाये और वेदक अध्ययन कराये । शिष्य भी आचमन कर

उत्तराभिमुख हो ऋह्माञ्जलि बाँघकर एकाग्रचित्त हो प्रसन्न-मनसे

वेदाध्ययनके लिये बैठे। पढ़नेके आरम्भ तथा अन्तमं गुरुके

चरणोको वन्दना क्रे! पढ़नेके समय दोनों हाधोंकी जो

अञ्जलि बाँधी जाती है, उसे 'ब्रह्माजलि' कहा जता है।

॥: प्रोक्तो कायः प्रदेशिनों ॥

अनामिक्या त्या सूर्य: कनिष्ठा मक्का विभो । प्रजापनिर्पध्यय करेया तत्माद्‌ प्वरतसत्तय ॥

खर्त्वेताः कस्मध्ये तु रेखा विप्रस्य भारत ॥

(आहापवे ३ | ८४-८७)

गङ्ाच्छः सरितः रार्या ज्ैणा भरतसत्तम । वान्वङ्गुलियु फर्वाणि गिरयस्तानि विद्धि चै ॥

सर्वदेवमयो सजन करो विप्रस्थ दक्षिण: ॥

(ब्राह्र्फ्व ३ । ९> --*द)

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