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(प्रतिप्नर्गपर्व २। २४ । ५)
“जो भगवान् करुणाके निधान हैं, जिनके चरणकमल
कनदनीय है, जो भक्तोपर अनुकम्पा करनेवाले है, जो
लक्ष्मणजीके साथ रहते हैं और माता श्रीसीतासे समन्वित हैं
तथा माता वैदेही श्रीजनकनन्दिनीजके मुख-कमलकी ओर
लिग्धभावसे देखते रहते है, उन शत्रुर, हनुमान् तथा भरतसे
सूतजीने कहा--ऋषियो! अब मैं आपसे श्रेष्ठ
राजाओकि चरित्रोंसे सम्बद्ध एक इतिहासका वर्णन करता हूँ,
उसे आपलोग श्रवण करें। यह पवित्र आख्यान कलियुगके
सम्पूर्ण परापोंका विनाश करनेवाला, कामनाओंको पूर्ण
विद्वानोंको आनन्दित करनेवाला तथा विशेष रूपसे सत्संगकी
चर्चास्वरूप दै! ।
ऋषियों ! एक समय योगी देवर्षि नारदजी सबके
कल्याणकी कामनासे विविध लोकोंमें भ्रमण करते हुए इस
मृत्युलोकमें आये । यहाँ उन्होंने देखा कि अपने-अपने किये
गये क्कि अनुसार संसारके प्राणी नाना प्रकारके क्लेशो एवं
दुःखोसे दुःखी हैं और विविध आधि एवं व्याधिसे रस्त है ।
यह देखकर उन्होंने सोचा कि कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे इन
प्राणियोकि दुःखका नाश हो। ऐसा विचास्कर वे विष्णु-
लोकमें गये। वहाँ उन्होने शङ्ख, चक्र, गदा, पद और
सनत्कुमारादिसे संस्तुते भगवान् नागयणका दर्शन किया । उन
देवाधिदेवका दर्शनकर नारदजी उनकी इस प्रकार स्तुति करने
लगे--'वाणी और मनसे जिनका स्वरूप परे है और जो
अनन्तशक्तिसम्पन्न हैं, आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं, ऐसे
१-कलिकलुषविद्शश॑ कामसिद्धिप्रकाश
विशुधबुधिकिलास॑. साधुचर्याविशेष
महान् आत्मा निर्गुणस्वरूप आप परमात्माकों मेरा नमस्कार है।
सभीके आदिपुरुष लोकोपकारपरायण, सर्वत्र व्याप्त, तफोमूर्ति
आपको मेरा बार-बार नमस्कार है।'
देवर्षि नारदकी स्तुति सुनकर भगवान् विष्णु
बोले--देवषें ! आप किस कारणसे यहाँ आये हैं ? आपके
मनमें कौन-सी चिन्ता है? महाभाग ! आप सभी बातें
बताये । मैं उचित उपाय कहूँगा।
नारदजीने कडा -- प्रभो ! लोको भ्रमण करता हुआ
मैं मृत्युलोकमें गया था, वहाँ मैंने देखा कि संसारके सभी
प्राणी अनेक प्रकारके क्लेश-तापोसे दुःखी हैं। अनेक रोगोंसे
अस्त है । उनकी यैसी दुर्दशा देखकर मैरे मनमे बड़ा कष्ट हुआ
और मैं सोचने लगा कि किस उपायसे इन दुःखी प्राणियोंका
उद्धार होगा ? भगवन् ! उनके कल्याणके लिये आप कोई
श्रेष्ठ एवं सुगम उपाय बतलानेकी कृपा कर । नारदजीके इन
वचनोको सुनकर भगवान् नारायणने साधु-साधु शब्दोंसे
उनका अभिनन्दन किया और कहा--'नारदजी! जिस विषयमे
आप पूछ रहे हैं, उसके लिये मैं आपको एक सनातन व्रत
बतलाता हूँ।!
भगवान् नारायण सत्ययुग और त्रेतायुगमें विष्णुस्वरूपमें
फल प्रदान करते हैं और द्रापरमें अनेक रूप धारणकर फल
देते हैं, परंतु कलियुगमे सर्वव्यापक भगवान् सत्यनारायण
प्रत्यक्ष फल देते हैं, क्योंकि धर्मके चार पाद है-- सत्य, शौच,
तप और दान। इनमें सत्य ही प्रधान धर्म है। सत्यपर ही
लोकका व्यवहार रिका है और सत्यमे ही ब्रह्म प्रतिष्ठित है,
इसलिये सत्यस्वरूप भगवान् सत्यनारायणका व्रत परम श्रेष्ठ
कहा गया है।'
नारदजीने पुनः पृछा -- भगवन् ! सत्यनारायणकी
पूजाका क्या फल है और इसकी क्या विधि है? देव !
कृपासागर ! सभी बातें अनुफ्रहपूर्वक मुझे बतायें।
श्रीभगवान् बोले--नारद ! सत्यनारायणकी पूजाका
फल एवं विधि चतुर्मुख ब्रह्म भी बतलानेमें समर्थ नहीं
हैं, किंतु संक्षेपमें मैं सका फल तथा विधि बतला रहा हूँ,
सुस्वस्पुखभास॑ भूसुरेण प्रकाशम्।
नृपतिबरचरित्रं भोः शृणुष्णेतिहासम्॥ (अतिखर्णपर्वं २। २४॥ ६)