अतिसर्पपर्य, द्वितीय खण्ड ]
+ विषयी राजा राज्यके विनाझका कारण बनता है +
रडर
चौथेने कहा--'राजन् ! मैं सर्वकला-विशारद हूँ, प्रतिदिन
अपने उद्योगसे पाँच रत प्राप्त करता हूँ, उनमेंसे पुण्यके लिये
एक रत्न, होमके लिये द्वितीय रत्न, आत्माके लिये तृतीय रत्र,
पीके लिये चतुर्थ र तथा शेष अन्तिम रज घोजनके लिये
व्यय करता हूँ। अतः आप अपनी कन्या मुझ सर्वकला-
विशारदको प्रदान को ।'
यह सुनकर राजा आश्चर्यमें पड़ गया कि अपनी कल्या मैं
किसे दूँ। बह कुछ निश्चय नहीं कर पाया। अन्ते उसने सारी
बातें कन्याको बतायी और उससे पूछा कि तुम्हें इनमेंसे
कौन-सा वर अभीष्ट है, पर कन्या त्रिलोकसुच्दरीने लज्जावश
कुछ भी उत्तर नहीं दिया।
चैतालने पूछा--राजन्! अब आप बताये कि उस
कन्याके योग्य वर इनमेंसे कौन था ?
राजा बोला--रुद्र॒किंकर ! वह रूपवती कन्या त्रिलोक-
सुन्दरौ धर्मदत्तके योग्य है; क्योंकि इन्द्रदत्त वेदादि शाखोंका
शतः है, अतः वर्नसे वह द्विज कहा जायगा। भाषा जानने-
वाला तथा धन-धान्यका विस्तार करनेवाला धनागल वणिक्
कहा जायगा। तृतीय जो कलायिद है और रमरोंका व्यापार
करता है, वह शुद्र कहलायेगा। यैताल ! सवर्णकि लिये ही
कन्या योग्य होती है, अतः धनुर्वेद-शाख्ममें जो निपुण थर्मदत्त
है, वह वर्णसे क्षत्रिय कहलायेगा, इसलिये उस क्षत्रिय
कन्याका विवाह धर्मदत्तके साथ ही किया जाना चाहिये।
~तो,
विषयी राजा राज्यके विनाशका कारण वनता है
(राजा धर्मवल्लभ और भन्री सत्यप्रकाशकी कथा)
चैतालने पुनः राजसे कहा-- रुजन् ! प्राचीन कालमें
रमणीय पुण्यपुर (पून) नगरमे धर्मवल्लभ नामका एक राजा
राज्य करता थो । उसका मन्त्रौ सत्यप्रकाश धा । मजीकी
खीका नाम था लक्ष्मी। एक यार राजा धर्मवल्लभने मन्त्रीसे
कहा---मन्त्रिवर ! आनन्दके कितने भेद हैं? यह मुझे
बताओ ।' उसने कहा--“महाराज ! आनन्द चार प्रकारके हैं।
(१) ग्रह्मवर्यश्रमका आनन्द ओ ब्रह्मानन्द है, यह श्रेष्ठ है।
(२) गृहस्थाश्रमका विषयानन्द मध्यम है। (३) वानप्रस्थका
धर्माननद सामान्य है और (४) संन्यासमें जो शिवानन्दकी
ऋ्राप्ति है, यह आनन्द उत्तमोत्तम है। राजन्! इसमें
गृहस्थाश्रमका विषयानन्द स्व्री-प्रधान है, क्योकि गृहस्थ-
आश्रममें ख्लोके बिना सुख नहीं मिलता।
यह सुनकर राजा अपने अनुकूल घर्मपशायणा पत्नी प्राप्त
करनेके लिये अन्य देशमें चला गया, किंतु उसे मनोऽनुकृल
पत्नी नहीं प्राप्त हुई। तब उसने अपने मन्त्रीसे कहा--'मेरे
अनुरूप कोई स्त्री दुवो ।' यह सुनकर मन्त्रौ विभिन्न देशोमें
गया। पर जब करी भी उसे राजाके योग्य स्री नही मिली तो
वह सिन्धु देशमें आकर समुद्रकी ओर बढ़ा । सभी तीथोमें बरे
सियुकों देखकर वह प्रसन्न हुआ। मन्त्री सत्यप्रकाशने समुद्रसे
इस प्रकार प्रार्थना की-- “सभी रत्रोंके आलय, सिन्धुदेशके
स्वामिन् ! आपको नमस्करर है। शरणागतवत्सल ! मैं आपकी
सन धन पुर अ ९०
शरणमे आया हूँ, गङ्गा आदि नदियोंके स्वामी जलाधीरा !
आपको नमस्कार है। मेरे राजके लिये आप उत्तम स्त्री-रत्र
प्रदान कर । यदि ऐसा आप नहीं करेंगे तो मैं अपने प्राण यहाँ
दे दूँगा।' नदीपति सागर यह स्तुति सुनकर प्रसन्न हो गये और
उसे जलमें विद्युमके पतपरॉंवाले, मुत्तरूपी फलसे समन्वित एक
युक्षकों दिखाया, जिसके ऊपर मनोरमा, सुकुमारौ एक सुन्दरी
कल्या स्थित थी। पर कुछ ही क्षणोंमें देखते ही देखते यह
कन्या चुक्षसहित पुनः जलमें तीन हो गयी ।
यह देखकर अतिशय आशर्यचकित् होकर मनतरी सत्य
प्रकाश पुनः रजके पास लौट आया और उसने सारौ बातें
एकको सुनायीं। पुनः दोनों समुद्रके किनारे आये। जाने भी
मन्त्रीके समान ही कत्याको वृक्षपर बैठा देखा और राजाके
देखते ही वह कन्या पूर्ववत् जलमें प्रविष्ट हो गयौ । इस अद्भुत
दृश्यकों देखकर राजा भी समुद्रमें प्रविष्ट हो गया तथा उसी
कन्याके साथ पातालमें पहुँच गया और म्रौ वापस लौट
आया।
राजाने कहा--वरनने ! मैं तुप्होरे लिये यहाँ आया
हूँ। गान्धर्वं विवाहसे मुझे प्राप्त करो । उसने हँसकर कहा---
'नृफ्त्रेह ! जब कृष्ण पञ्चकौ चतुर्दशी तिथि आयेगी, तब मैं
देवी-मन्दिर्में आकर तुम्हें मिलूँगी।' सजा लौट आया और
पुनः कृष्ण चतुर्दशीके दिन हाथमें तलवार लेकर देवीके