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ॐ श्रीपरमात्मने नमः

प्रतिसर्गपर्व

(द्वितीय खण्ड)

स्वापी एवं सेवककी परस्पर भक्तिका आदर्श *

(राजा रूपसेन तथा जीरवरकी कथा)

सूतजी बोले--महापुने ! एक बार रुद्रकिकर वैतालने

सर्वप्रथम भगवान्‌ शंकरका ध्यान किया और फिर महाराज

विक्रमादित्यसे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया--

राजन्‌ ! अब आप एक मनोहर कथा सून । प्राचीन

कालम सर्वसमृद्धिपूर्ण वर्धमान नामक नगरमे रूपसेन

नामका एक धर्मात्मा राजा रहता था । उसकी पतिव्रता रानीका

नाम विद्व्भाला था ! एक दिन राजाके दर्यारम वीरवर नामका

एक क्षत्रिय गुणी व्यक्ति अपनी पत्री, कन्या एवं पुत्रके साय

वृत्तिके लिये उपस्थित हआ । राजाने उसकी विनयपूर्ण बातोंको

सुनकर प्रतिदिन एक सहस्र स्वर्णमुद्रा वेतन निर्धारित कर

महलके सिंहद्वारपर रक्षकके रूपमें उसकी नियुक्ति कर ली ।

कुछ दिन बाद राजान अपने गुप्तचग्रेंस जब उसकी आर्थिक

स्थितिका पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि बह अपना अधिकांश

द्रव्य यज्ञ, तोर्थ, शिव तथा विष्णुके मच्दिरॉमें आराधनादि

कार्योंविं तथा साधु, ब्राह्मण एवं अना्थोमि चितरिते कर अत्यल्प

शेषसे अपने परिजनोंका पालन करता है। इससे असन्न होकर

राजाने उसकी स्थायी नियुक्ति कर दी।

एक दिन जब आधी रातमें मूसलाधार वष्टि, बादलोंकी

गरज, बिजलीकी चमक एवं झंझावातसे रात्रिकी विभीषिका

सोमा पार कर रहो थी, उसी समय श्मशानसे किसी नारीकी

करुणक्रन्दन-ध्वनि राजाके कानोंमें पड़ी। राजाने सिंहद्रारपर

उपस्थित वीरवरसे इस रुदन-ध्वनिका पता लगानेके लिये

कहा । जब वीरवर तलवार लेकर चला, त्व राजा भी उसके

अभयकी आशंका तथा उसके सहयोगके लिये एक तलवार

लेकर गुप्तरूपसे स्वयं उसके पोछे लग गया। वौरवसे

श्मशानमें पहुँचकर एक खोको यहाँ रोते देखा और उससे जय

इसका कारण पूछा, तब उसने कहा कि “मैं इस राज्यकी

लक्ष्मी--राष्ट्रलक्ष्मी हूँ--इसी मासके अन्तमें राजः रूपसेनकौ

मृत्यु हो जायगी। राजाकी मृत्यु हो जानेपर मैं अनाथ होकर

कहाँ जाऊँगी'--इसी चिन्तासे मैं रो रही हूँ।

स्वामिभक्त वीरवरने राजाके दीर्घायु छोनेका उससे उपाय

पूछा । इसपर यह देवी बोली -- "यदि तुम अपने पुत्रकी बलि

चष्डिकादेवीके सामने दे सको तो राजाके आयुकी रक्षा हो

सकती है।' फिर क्या धा, वीरवर उलटे पाँव घर लौट आया

और अपनी पत्नी, पुत्र तथा लड़कीकों जगाकर उनकी सम्मति

लेकर उनके साथ चण्डिकाके मन्दिस्में जा पहुँचा। राजा भी

गुप्तरूपसे उसके पौछे-पौंछे सर्वत्र चलता रहा। बीरचरने

देवीकी प्रार्थना कर अपने स्वामीकी आयु बढ़ानेके लिये अपने

पुत्रकी बलि चढ़ा दी। धाईका कटा सिर देखकर दुःखसे

उसकी बहिनका हृदय विदीर्ण हो गया -- वह मर गयी और इसी

शोकमें उसकी माता भी चल बसी। वीरवर इन तीनोंका

दाह-संस्कार कर स्वयं भी राजाकौ आयुकी वृद्धिके लिये बलि

चढ़ गया।

राजा छिपकर यह सब देख रहा था। उसने देवोकी

प्रार्थना कर अपने जोवनको व्यर्थ बताते हुए अपना सिर

काटनेके लिये ज्यों हौ तलवार खाँची, त्यो ही देवोने प्रकट

होकर उसका हाथ पकड लिया और बोली--'राजन्‌ ! मैं

तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारी आयु तो सुरक्षित हो ही गयी,

अब तुप अपनी इच्छानुसार वर माँग लो।' राजाने देखोसे

परिजनोॉंसहित वीरयरको जिलानेकी प्रार्थना की। "तथास्तु!

कहकर देवी अन्तर्घन हो गयी । राओ प्रसन्न होकर चुपके-से

वहसे चलकर अपने महलमें आकर लेट गया । इधर वीरवर

भी चकित होता हुआ और देवीकी कृपा मानता हुआ अपने

पुनजीवित परिवारको घरपर छोड़कर राजप्रासादके सिंह॒द्वारपर

कै भ्यते प्राचीन कालसे "वैताल -पद्धविशतिकः' या 'कैतालपचीसी को कथाएँ, जो विक्रम-वैताल-संवादके रूपये लोकते अस्वन्त

हैं, उनका मूल भक्िष्यपुराण ही प्रतीत होता है। ये कथाएँ खी-पुरुषोके अमर्यादित एवं अनैतिक आकर्षणसे सयन्व्ति होते हुए भी

त्कोक-व्यवहारव दुष्टे शिक्षाप्रद भी हैं। अतः उनमेंसे कुछ कथाएँ यहाँ प्रस्तुत को जय रहो है ।

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