प्रतिसर्णपर्व, प्रथम खण्ड ] + महाराज विक्रमादित्यके चरिष्रका उपक्रम « २४५
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हुए। ये अपने माता-पिताको आनन्द देनेवाले थे। ये बचपनसे जिसमें विविध मणियोंसे विभूषित अनेक घातुओंके स्तम्भ थे।
ही महान् बुद्धिमान् थे। बुद्धिविदा्रद विक्रमादित्य पाँच वर्धक रौनकजी ! उसने अनेक लताओंसे पूर्ण, पुष्पान्यित स्थानपर
ही बाल्यावस्थामें तप करने बनमें चले गये। बारह वर्षोत्तक अपने दिव्य सिंहासनकों स्थापित किया। उसने वेद-वेदाब़-
प्रयत्नपूर्वकत तपस्या कर वे ऐश्वर्य-सम्पन्न हो गये। उन्होंने पारंगत मुख्य ब्राह्मणोंकों बुलाकर विधिवत् उनकी पूजाकर
अम्बावती नामक दिव्य नगरीमें आकर अ्रत्तीस मूर्तियोंसे उनसे अनेक धर्म-गाथाएँ सुनीं। इसी समय यैताल नामक
समन्वित, भगवान् झिवद्वारा अभिरक्षित रमणीय और दिव्य देवता ब्राह्मणको रूप धारण कर 'आपकी जय हो', इस प्रकार
सिंहासनको सुशोभित किया। भगयती पार्वतीके द्वारा प्रेषित कहता हुआ वहाँ आया और उनका अभिवादन कर आसनपर
एक वैताल उनकी रक्षामें सदा तत्पर रहता था। उस वीर॒ बैठ गया ¦ उस बैतालने राजासे कहा-- राजन् ! यदि आपको
राजाने महाकालेश्वरमें जाकर देवाधिदेव महादेवकी पूजा की सुननेकी इच्छा हो तो पै आपको इतिहाससे परिपूर्ण एक रोचक
और अनेक व्यूहोंसे परिपूर्ण घर्म-सभाका निर्माण किया। आख्यान सुनाता है, इसे आप सुने । (अध्याय ७)
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॥ प्रतिसर्गपर्व, प्रथम खण्ड सम्पूर्ण ॥
१-भारतवर्षमें विक्रमादित्य अत्यन्त प्रमिद्ध दायी, परोपकारी और रा्याद्र-सदाचारी राजा हुए हैं। स्कन्दे आदि पुराणों, यूहल्कथा और
ड्वा्जिशर्पुनतल्तिका, सिफ्ासतबत्तीसी, कथासरित्सागर, पुरुप-परोक्षा आदि पघ्रथ्थोें इसका चरित्र वर्णित है । आय इधर कैम्त्रजके इतिहासके दूसरे भागे
इतका चित्र आया रै । यैगे ग्मिच्च और शिफिस्सटन आदिते अतेक विक्रमादिस्वॉकी चर्चा की है, पर थे महाराज विक्रमादित्व उजयिनोके राजा थे
और कर्डलदास, अपशणिह, वहम, वैद्यराज धन्वन्ति, घटकर्पर आदि ववरत् इनकी हो राजसभाकत दिव्य विद्धद्विभृतियाँ थीं। जिनकी
आगे पीछे कोई दमा नहीं है। राज भो जे तकर चाद अकबरतक सभीने अपनी सभाक सैसे ही गवानोंसे अलेकृत करनेका प्रथत् किया चा ।