* पुराण परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौरूयदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
वट, बिल्ख तथा पूगीफल आदि वृक्ष-युक्त उद्यानकी प्रतिष्ठा-विधि
सुतजी कहते हैं--ब्राह्मणो ! वट-वृक्षकी प्रतिष्ठे
वुक्षके दक्षिण दिज्ञामें उसकी जड़के पास तीन हाथकी एक
केटी बनाये और उसपर तीन कला स्थापित करे । उन
कलश्ॉपर क्रमशः गणेश, दिव तथा विष्णुकी पूजा कर चरुसे
होम करे । बट-यृक्षको त्रिगुणित रक्त सूत्रोंसे आवेष्टित करे ।
वरिण यव-क्षीर प्रदान करे ओर यूपस्तम्थ आरोपित करे ।
वट-वृक्षके मूलमें यक्ष, नाग, गन्धर्व, सिद्ध ओर मरुदुगर्णोकी
पूजा करे । इस प्रकार सम्पूर्ण क्रियाएँ विधिके अनुसार पूर्ण
करे।
बिल्ववृक्षकी प्रतिष्ठामें पहले दिन वृक्षका अधिवासन
क्रे । "यम्बकः" (यजू० ३। ६०) इस मत्ते वृक्षक पवित्र
स्थानपर स्थापित कर “सुनायमा«' (यजु २६।७) इस
मनसे गन्धोदकद्घारा उसे स्नान कराये। “मे गृह्णामि" इस
मन्तरसे युक्षपर अकत चढ़ाये। "कया नक्षित्र* (यजुः
२७।३९) इस मन्त्रसे धृष, वरू तथा माला चढ़ाये।
तदनन्तर रुद्र, विष्णु, दुर्गा और धनेश्वर--कुवेरका पूजन करे ।
दूसरे दिन प्रातःकाल उठकर शाख्मानुसार नित्यक्रियासे निवृत्त
होकर घरमें सात ब्राह्मण-दम्पतिकों भोजन कराये। फिर
बिल्वके मूलप्रदेतामें दो हाथकी वर्तृलाकार बेदीका निर्माण
करे । उसको गेरु तथा सुन्दर पुष्य -चृ्णीदिसे रज्जितकर उसपर
आप्दल-कमलकी रचना करे । वृक्षक्रों ल्वल सूतसे पाँच, सात
या नौ बार वेष्टित करे । वृक्ष-मूलमें उत्तराभिमुख होकर ब्रीहि
रोपे तथा हिव, विष्णु, ब्रह्मा, गणेदा, शेष, अनन्त, इन्द्र,
वनपाल, सोम, सूर्य तथा पृथ्वो--इनका क्रमङः पूजन करे ।
तिल और अक्षतसे हवन करें तथा घी एवं भातका नैचेद्य दे ।
यक्षि लिये उड़द और भातका भोग लगाये । गहोंकी तुष्टिके
लिये वासके पात्रपर नैवेद्य दे | बिल्व-युक्षको दक्षिण दिशासे
दूधकी धारा प्रदान करें। यूपका आरोपण करे, वृक्षका
कर्णवेध-संस्कार करे और भगवान् सूर्यकों अर्यं प्रदान करे ।
यदि सौ हाथको लंबाई-चौड़ाईका उद्यान हो, जिसमें
सुपारी या आम्र आदिके फल्दायक यृक्ष लगे हों तो ऐसे
उद्चानकी प्रतिष्ठामें वास्तृमण्डलकी रचनाकर वास्तु आदि
देवताओंका पूजन करके यञन-कर्म करे । विशेषरूपसे विष्णु
एवे प्रजापति आदि देवता ओंका पूजन करें। हवनके अन्त
ब्राह्मणको दक्षिणा दे ।
(अध्याय ९--११)
जवः + - ८
मण्डप, महायूप और पौसले आदिकी प्रतिष्ठा-विधि
सूतजी कहते है--द्विजगणो ¦! अब पै यागादिके
निषित्त निर्मित होनेवाले पष्डपोकी प्रतिष्ठा-विधि यतेत्परता हं
वह मण्डप दिलामय हो या काप्ठटमय अथवा तृण-पत्रादिसे
निर्मित हों। ऐसी स्थितिमें अधिवासनके प्रारम्भे शुभ-लग्म-
मुहूर्तमें घट-स्थापन करें। उस कलटापर सूर्य, सोम और
विष्णुकी अर्चना करे । "आपो हि टा" (यजु० ११ । ५०) इस
मन्त्रद्वारा कुशोदकसे तथा 'आप्पायस्व० {यजु १२ । ६६४)
इस मन्दारा सुगध-जलसे प्रोक्षण करे। "गन्खद्वारा"'
(श्रीसूक्त ९) इस ऋचासे चन्दन, सिन्दूर, आर्ता ओर अञ्जन
समर्पण करे । फिर दूसरे दिन प्रातः वुद्धि-श्राद करे ¦ शुभ
खश्षणवा्े मण्डपमम दिक््पास्तरंकी स्थापना करे । मध्यमे येदीके
ऊपर मण्डल चित्रित क्रे । उसमें सूर्य, सोप, विष्णुकी तथा
कलकझापर गणेदा, नवपरह आदिकी पूजा के । सूर्यके स्यि
६०८ बार पायस -होम करे ! विष्णु और सोमका उद्देश्य कर
बारह आहूतियां एवै पायस-बलि दै । कास्तु-देवताका पूजन
करे और उनको अर्य देकर विधिवत् आहूति प्रदान करे, फिर
उस पण्डको संकल्पपूर्वक योग्य ब्राह्मणके लिये समर्पित कर
दे। उसे विधियत् दक्षिणा दे और सूर्यके लिये अर्प्य प्रदान
करें। तृण-मण्डपमें विशेषरूपसे वासुदैवके साथ भगवान्
सूर्यकी पूजा करे। एक घटके ऊपर यरदायक भगवान्
गणेशजीकी पूजा कर विसर्जन करे | ईशानकोणमें युप स्थापित
कर खभो दिशाओंमें ध्वजा फहराये।
ब्राह्मणो ¦ अव मैं चार हाथसे छेकर सोलह हाथके
प्रमाणमें निर्मित महायूपकी एवं पौंसल्ा तथा कुएँ आदिकौ
प्रतिष्ठा-विधि बतला रहा हूँ। इनकी प्रतिष्ठामें गर्ग-त्रिगत्र यज्ञ
करना चाहिये। पौंसलेके पश्चिम भागमें श्रेत कुम्भपर भगवान्
वरुणको स्थापित कर "गायत्री मन्त्र तथा 'आपो हि छा
(यजु" ११ ¦ ५०) इन मजोंसे उन स्नान कराना चाहिये ।